आने वाली तेरह अप्रैल से माँ भगवती की उपासना का नौ दिन का पर्व नवरात्र आरम्भ होने जा रहे हैं | इस अवसर पर हर घर में भगवती की पूजा अर्चना के साथ ही अनेक प्रकार के फलाहार के पकवान भी बनाए जाएँगे | तो क्यों न साबूदाने यानी Sago या Tapioca के पापड़ बनाए जाएँ और फिर उन्हें व्रत के दिनों में तल कर खाया जाए… कैसे ? सीखते हैं अर्चना गर्ग से… सादर: डॉ पूर्णिमा शर्मा
साबूदाना के पापड़
Archana Garg
सामग्री….
2 कप साबूदाना महीन
10 कप पानी
2 छोटे चम्मच जीरा
1 चम्मच कुटी लाल मिर्च
नमक स्वादानुसार
विधि…
साबूदाना पापड़ बनाने के लिए छोटे दाने का साबूदाना लें और उसे चार घंटे पानी में भिगो दें |
एक मोटी तली का बर्तन लें और उसमें भीगे हुए साबूदाना को निकालकर बर्तन में पलट लें | फिर दस कप पानी डालकर गैस पर चढ़ा दें और लगातार करछी से चलाते रहें | साथ ही उसमें नमक, मिर्च और जीरा भी डाल दें | इतना ध्यान रखें कि उसमें गाँठें न पड़ने पाएँ | जब गाढ़ा हो जाए तो गैस बन्द करके बर्तन को नीचे उतार लें |
अब बड़े परात में तली में तेल लगा कर एक एक करछी साबूदाना डालकर पापड़ के लिए गोल आकार दें और सूखने के लिए धूप में किसी साफ़ कपडे पर फैलाती रहें | अच्छी धूप में पापड़ों को उलट पलट करती रहें | चार दिन बाद आपके पापड़ सूखकर तैयार मिलेंगे । अब इन्हें चाहें तो तलकर खाइए या फिर हल्की सी चिकनाई लगाकर माइक्रोवेव में भी भून का खा सकते हैं |
जी हाँ मित्रों, दूसरों को अपने अनुरूप बदलने के स्थान पर हमें पहले स्वयं को बदलने का प्रयास करना चाहिए | अभी पिछले दिनों कुछ मित्रों के मध्य बैठी हुई थी | सब
Katyayani Dr. Purnima Sharma
इधर उधर की बातों में लगे हुए थे | न जाने कहाँ से चर्चा आरम्भ हुई कि एक मित्र बोल उठीं “देखो हमारी शादी जब हुई थी तब हम कितना बदल गए थे | कभी माँ के घर किसी काम को हाथ नहीं लगाया था, यहाँ आकर क्या क्या नहीं किया…”
“अच्छा सुषमा जी एक बात बताइये, क्या आपसे आपके ससुराल वालों ने बदलने की उम्मीद की थी या दबाव डाला था किसी तरह का…?” मैंने पूछा तो उन्हीं मित्र ने कहा “नहीं, पर हमें लगा हमें परिवार की परम्पराओं के अनुसार चलना चाहिए…”
“और क्या भाई साहब – मेरा मतलब तुम्हारे पतिदेव और आंटी अंकल यानी तुम्हारे सास ससुर में किसी प्रकार का कोई परिवर्तन तुम्हें दीख पड़ा… या वे लोग जस के तस ही रहे…?” मज़ाक़ में एक दूसरी मित्र ने पूछा |
“अरे क्या बात करती हो, असल में तो हम सबने ही अपने अपने आप में बहुत से बदलाव किये हैं | और इन्होने तो बहुत ही किये हैं…” ख़ुशी से चिहुँकती हुई सुषमा जी बोलीं “स्पष्ट सी बात है कि दोनों ही अलग अलग पृष्ठभूमि से आए थे, तो दोनों को ही स्वयं को एक दूसरे के अनुरूप – एक दूसरे के परिवेश के अनुकूल ढालना था – और हम दोनों ने ही ऐसा किया | कुछ वे आगे बढे… कुछ मैं… और हम दोनों की देखा देखी घर के दूसरे लोग भी… और हम ही क्या, आप सबके साथ भी तो ऐसा ही हुआ होगा…”
“पर वो गुप्ता आंटी की बहू है न कविता, बहुत ख़राब है… इतना बुरा व्यवहार करती है न आंटी अंकल के साथ कि सच में कभी कभी तो बड़ा दुःख होता है बेचारों की स्थिति पर…” एक अन्य मित्र बोलीं |
“अरे जाने भी दो न यार…” एक दूसरी मित्र बीच में बोलीं “गुप्ता आंटी और अंकल ही कौन अच्छे हैं… बेचारी कविता को नौकरानी बना कर रखा हुआ था… वो भी कब तक सहती…”
घर वापस लौट कर पार्क में हुई इन्हीं सब बातों के विषय में सोचते रहे | बातें सम्भवतः सभी की अपने अपने स्थान पर सही थीं कुछ सीमा तक | लेकिन जो सास ससुर या बहू एक दूसरे के साथ बुरा व्यवहार करते थे वे ऐसा क्यों करते थे ये हमें कुछ समझ नहीं आ रहा था | और भी कुछ लोगों को कहते सुना है कि अमुक परिवार में ससुराल वाले बुरे हैं, या अमुक व्यक्ति की बहू ने सास ससुर को वृद्धाश्रम भिजवा दिया… या उनकी बीमारी में भी बेटा बहू उन्हें देखने तक के लिए नहीं आए, जबकि पास ही रहते हैं… इत्यादि इत्यादि… और ये केवल परिवारों की ही बात नहीं है | समाज के किसी भी क्षेत्र में चले जाइए, परस्पर वैमनस्य… ईर्ष्या… एक दूसरे के साथ दिलों का न मिल पाना… इस प्रकार की समस्याएँ लगभग हर स्थान पर दिखाई दे जाएँगी…
लेकिन फिर उन दूसरी मित्र सुषमा जी की कही बात भी स्मरण हो आई, कि यदि दूसरों को अपना बनाना हो – उन्हें अपने मन के अनुकूल ढालना हो – तो दूसरों को बदलने के स्थान पर हमें स्वयं उनके अनुरूप बदलने का प्रयास करना होगा | हम स्वयं उदाहरण प्रस्तुत करेंगे तो दूसरों पर भी इसका प्रभाव पड़ेगा | कुछ हम आगे बढ़ेंगे और कुछ दूसरे लोग – और इस प्रकार से सभी एक दूसरे के अनुकूल बन जाएँगे |
बात उनकी शत प्रतिशत सही थी | असल में जहाँ कहीं भी दो मित्रों में, परिवार के सदस्यों में, किसी संस्था अथवा कार्यालय में अथवा कहीं भी किसी प्रकार का विवाद होता है तो बहुत से अन्य कारणों के साथ साथ उसका एक बहुत बड़ा कारण यह भी होता है कि हर व्यक्ति दूसरे व्यक्ति से अपेक्षा रखता है कि वह व्यक्ति उसके अनुरूप स्वयं को ढाल लेगा | बस यही सारे विवाद का मूल होता है | हम किसी अन्य से अपेक्षा क्यों रखें कि वह हमारे अनुरूप स्वयं के व्यवहार में परिवर्तन कर लेगा | क्यों नहीं पहले हम स्वयं उसके अनुरूप स्वयं में परिवर्तन करके उसके समक्ष एक उदाहरण प्रस्तुत करें ? जब हम दूसरों को बदलने के स्थान पर स्वयं को बदलना आरम्भ कर देते हैं तब वास्तव में हम अनजाने ही दूसरों के साथ एक प्रेम के बन्धन में बँधते चले जाते हैं | एक ऐसा अटूट बन्धन जहाँ एक दूसरे को बदलने की इच्छा कोई नहीं करता, बल्कि हर कोई एक दूजे के रंग में रंग जाना चाहता है | संसार के सारे सम्बन्ध इसी सिद्धान्त पर तो टिके हुए हैं | और यहीं से आरम्भ होता है अध्यात्म के मार्ग का | जब हम दूसरों को बदलने के स्थान पर स्वयं को बदलना आरम्भ कर देते हैं तब वास्तव में हम अध्यात्म मार्ग का अनुसरण कर रहे होते हैं |
लेकिन जो व्यक्ति स्वयं को समझदार और पूर्णज्ञानी मानकर अहंकारी बन बैठा हो उसे कुछ भी समझाना असम्भव हो जाता है | वह केवल दूसरे में ही परिवर्तन लाना चाहता है – स्वयं अपने आपको पूर्ण बताते हुए | भले बुरे का ज्ञान उसी व्यक्ति को तो दिया जा सकता है जो विनम्र भाव से यह स्वीकार करे कि वह अल्पज्ञानी है और अभी उसमें परिवर्तन की – आगे बढ़ने की – अपार सम्भावनाएँ निहित हैं | इसीलिए ज्ञानीजन कह गए हैं कि व्यक्ति को “पूर्णज्ञानी” होने के मिथ्या अहंकार से बचना चाहिए | वैसे भी अहंकार सम्बन्धों के लिए हानिकारक है | अहंकारी व्यक्ति के कभी भी किसी के साथ प्रगाढ़ सम्बन्ध नहीं बन सकते
अर्थात, व्यक्ति को ऐसे प्रयास करने चाहियें जिनसे उसका उद्धार हो, जिनसे वह प्रगति के पथ पर अग्रसर हो | कभी भी ऐसा कार्य नहीं करना चाहिए जिससे उसका पतन हो, क्योंकि किसी भी व्यक्ति का मित्र और शत्रु कोई अन्य नहीं होता – अपितु वह स्वयं अपना मित्र भी होता है और शत्रु भी | कहीं ऐसा न हो कि दूसरों को बदलने के प्रयास में हम स्वयं अपने ही शत्रु बन बैठें |
अर्थात, व्यक्ति जब क्रोध करता है तो उसका विवेक समाप्त होकर भ्रम की स्थिति उत्पन्न हो जाती है व्यक्ति मूढ़ बन जाता है | उस भ्रम से – मूढ़भाव से बुद्धि व्यग्र होती है, ज्ञानशक्ति का ह्रास हो जाता है और किस कार्य का क्या परिणाम होगा या किस समय किससे कैसे वचन कहें इस सबकी स्मृति नष्ट हो जाती है | स्मृतिनाश होने से तर्कशक्ति नष्ट हो जाती है और बुद्धि या तर्क शक्ति के नष्ट होने से व्यक्ति का विनाश निश्चित है | अतः क्रोध से बचने का सदा प्रयास करना चाहिए – और यह भी एक मार्ग है स्वयं में परिवर्तन लाने का |
साथ ही, व्यक्ति की मानसिक, भावनात्मक और आध्यात्मिक उन्नति के लिए कुछ समय के एकान्त की भी अत्यन्त आवश्यकता होती है | जिन सम्बन्धों में एक दूसरे को ऐसा एकान्त नहीं प्राप्त होता वे सम्बन्ध सन्देहों के झँझावात में फँस इतना बड़ा बोझ बन जाते हैं कि उन्हें सँभालना असम्भव हो जाता है | हम सबको अपने सम्बन्धों को इन्हीं कसौटियों पर परखने का प्रयास करना चाहिए | ऐसा करने से हम दूसरों को बदलने का प्रयास करने के स्थान पर स्वयं में परिवर्तन लाने का प्रयास करेंगे – और जिसका कि परिणाम यह होगा कि किसी में कोई परिवर्तन लाए बिना ही – अपनी अपनी वास्तविकताओं में रहते हुए ही – स्वयं को दूसरों के अनुकूल बना पाने में समर्थ होंगे | और इस प्रकार जब प्रत्येक व्यक्ति हर दूसरे व्यक्ति से अनुकूलन स्थापित करने में सक्षम हो जाएगा तो फिर किसी भी प्रकार के दुर्भाव के लिए वहाँ स्थान ही नहीं रहेगा… यही तो है सम्यग्दर्शन, सम्यक् चरित्र तथा सम्यक् चिन्तन की भावना, जो न केवल समस्त भारतीय दर्शनों का – अपितु हमारे विचार से समस्त विश्व के दर्शनों का सार है…
अस्तु ! हम सब अपने अपने सम्बन्धों में और कार्यक्षेत्रों में भी अपनी अपनी वास्तविकताओं में रहते हुए ही स्वयं को एक दूसरे के अनुकूल बनाते हुए अपने अपने उत्तरदायित्वों का भली भाँति निर्वाह करते रहें केवल यही एक कामना है – अपने लिए भी और अपने मित्रों के लिए भी…
_______________________कात्यायनी डॉ पूर्णिमा शर्मा
मंगलवार तेरह अप्रैल यानी चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से वासन्तिक नवरात्र आरम्भ होने जा रहे हैं | अभी पिछले दिनों हमने नवरात्रों का पञ्चांग पोस्ट किया था और नवरात्रों में घट स्थापना के महत्त्व पर बात की थी | आज आगे…
शारदीय नवरात्र हों या चैत्र नवरात्र – माँ भगवती को उनके नौ रूपों के साथ आमन्त्रित करके उन्हें स्थापित किया जाता है और फिर अन्तिम दिन कन्या अथवा कुमारी पूजन के साथ उन्हें विदा किया जाता है | कन्या पूजन किये बिना नवरात्रों की पूजा अधूरी मानी जाती है | प्रायः अष्टमी और नवमी को कन्या पूजन का विधान है | इस वर्ष 19/20 अप्रैल को अर्द्धरात्रि में बारह बजे के बाद अष्टमी तिथि का आगमन हो रहा है जो 20/21 की मध्यरात्रि में लगभग बारह बजकर तैंतालीस मिनट तक रहेगी और उसके बाद नवमी तिथि का आरम्भ हो जाएगा, जो 21/22 अप्रैल की मध्यरात्रि में लगभग बारह बजकर पैंतीस मिनट तक रहेगी | अतः बीस अप्रैल को अष्टमी और इक्कीस को रामनवमी की कन्याओं पूजा की जाएगी |
हम बात कर रहे हैं कन्या पूजन की प्रासंगिकता के विषय में | देवी भागवत महापुराण के अनुसार दो वर्ष से दस वर्ष की आयु की कन्याओं का पूजन किया जाना चाहिए | प्रस्तुत हैं कन्या पूजन के लिए कुछ मन्त्र…
इन नौ कन्याओं को नवदुर्गा की साक्षात प्रतिमूर्ति माना जाता है | इनकी मन्त्रों के द्वारा पूजा करके भोजन कराके उपहार दक्षिणा आदि देकर इन्हें विदा किया जाता है तभी नवरात्रों में देवी की उपासना पूर्ण मानी जाती है | साथ में एक बालक की पूजा भी की जाती है और उसे भैरव का स्वरूप माना जाता है, और इसके लिए मन्त्र है : “ॐ ह्रीं बटुकाय आपदुद्धारणाय कुरु कुरु बटुकाय ते नम:” |
हमारी अपनी मान्यता है कि सभी बच्चे भैरव अर्थात ईश्वर का स्वरूप होते हैं और सभी बच्चियाँ माँ भगवती का स्वरूप होती हैं, क्योंकि बच्चों में किसी भी प्रकार के छल कपट आदि का सर्वथा अभाव होता है | यही कारण है कि “जब कोई शिशु भोली आँखों मुझको लखता, वह सकल चराचर का साथी लगता मुझको |”
अतः कन्या पूजन के दिन जितने अधिक से अधिक बच्चों को भोजन कराया जा सके उतना ही पुण्य लाभ होगा | साथ ही कन्या पूजन तभी सार्थक होगा जब संसार की हर कन्या शारीरिक-मानसिक-बौद्धिक-सामाजिक-आर्थिक हर स्तर पर पूर्णतः स्वस्थ और सशक्त होगी और उसे पूर्ण सम्मान प्राप्त होगा |
किन्तु एक बात का ध्यान अवश्य रखें… यदि हम कन्या का – महिला का – सम्मान नहीं कर सकते, कन्याओं की अथवा कन्या भ्रूण की हत्या में किसी भी प्रकार से सहभागी बनते हैं… तो हमें देवी की उपासना का अथवा कन्या पूजन का भी कोई अधिकार नहीं है… क्योंकि हम केवल दिखावा मात्र करते हैं… ऐसा कैसे सम्भव है कि एक ओर तो हम साक्षात त्रिदेवी माता लक्ष्मी-दुर्गा-सरस्वती की प्रतीक कन्याओं को स्वयं पर बोझ समझकर कन्या भ्रूण हत्या जैसे घृणित कर्म के साक्षी बनें और दूसरी ओर देवी की उपासना और कन्या पूजन भी करें…? माँ भगवती की कृपादृष्टि चाहिए तो पहले हमें कन्याओं को समाज का आवश्यक अंग समझते हुए उनके प्रति सम्मान की और स्नेह की भावना अपने मन में दृढ़ करनी होगी… साथ ही अपने परिवारों के बच्चों के साथ ही यदि उन बच्चों को भी भोजन कराया जाए जिनके जीवन में भोजन आदि का अभाव है और उन्हें कुछ ऐसी वस्तुएँ उपहार स्वरूप दी जाएँ जिनसे उन्हें अपने अध्ययन में सहायता प्राप्त हो… तभी हम समझते हैं कि हमारे द्वारा की गई माँ भगवती की उपासना और कन्या पूजन सार्थक होगा…
यद्यपि कोरोना अभी समाप्त नहीं हुआ है इस कारण से सम्भव है इस वर्ष कन्या पूजन में अधिक बच्चे न उपलब्ध हो सकें… फिर भी अधिक से अधिक बच्चों को अष्टमी और नवमी तिथियों को भोजन कराते हुए पूर्ण हर्षोल्लासपूर्वक जगदम्बा को अगले नवरात्रों में आने का निमन्त्रण देते हुए विदा करें, इस कामना के साथ कि माँ भगवती अपने सभी रूपों में जगत का कल्याण करें… सभी को अग्रिम रूप से वासन्तिक नवरात्रों की हार्दिक शुभकामनाएँ…
रंगों का पर्व होली तो सम्पन्न हो चुका है – यानी होली तो “हो ली”… अब चैत्र शुक्ल प्रतिपदा यानी तेरह अप्रैल मंगलवार से आनन्द नामक सम्वत्सर 2078 का आरम्भ होने जा रहा है और इस दिन से समस्त हिन्दू सम्प्रदाय में हर घर में माँ भगवती की पूजा अर्चना का दश दिवसीय उत्सव साम्वत्सरिक नवरात्र के रूप में आरम्भ हो जाएगा जो इक्कीस अप्रैल को भगवान श्री राम के जन्मदिवस रामनवमी के साथ सम्पन्न होगा | कर्नाटक एवम् आन्ध्र में उगडी और महाराष्ट्र का गुडी पर्व भी इसी दिन है | साथ ही चौदह अप्रैल को बैसाखी, मेष संक्रान्ति अर्थात सूर्य का मेष राशि में संक्रमण तथा तमिलनाडु में मनाया जाने वाला चैत्री विशु के पर्व और पन्द्रह अप्रैल को पौहिला बैसाख भी है | सर्वप्रथम सभी को उगडी, गुडी पर्व, बैसाखी, पौहिला बैसाख, चैत्री विशु और साम्वत्सरिक नवरात्रों की हार्दिक शुभकामनाएँ…
कुछ गणनाओं के अनुसार “आनन्द” नामक सम्वत्सर विलुप्त होने के कारण सीधा “राक्षस” नाम के सम्वत्सर का ही आरम्भ होगा चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को और कुछ गणनाओं के अनुसार “आनन्द” सम्वत्सर विलुप्त नहीं हुआ है और इसी सम्वत्सर का आरम्भ होने जा रहा है | ये सब वैदिक ज्योतिष की गणनाओं का विषय है, जो वास्तव में बहुत जटिल प्रक्रिया है और इसकी गणना गुरु यानी बृहस्पति के गोचर के आधार पर की जाती है | इस विषय में फिर कभी चर्चा करेंगे | अभी हम इस विस्तार में न जाते हुए दूसरे मत को ही मान रहे हैं – जिसके अनुसार “प्लव” नामक शक संवत 1943 तथा “प्रमादी” नामक सम्वत्सर की समाप्ति के बाद अब “आनन्द” नामक विक्रम सम्वत 2078 चलेगा और संकल्पादि में इसी का उच्चारण किया जाएगा |
यों बारह अप्रैल को प्रातः आठ बजकर एक मिनट के लगभग वृषभ लग्न में प्रतिपदा तिथि का आरम्भ होने के कारण इसी समय से नव सम्वत्सर का भी आरम्भ हो जाएगा | इस समय किन्स्तुघ्न करण और वैधृति योग होगा, तथा सूर्य और चन्द्र दोनों रेवती नक्षत्र पर समान अंशों पर होने के कारण शुभ योग बना रहे होंगे तथा साथ ही बुधादित्य योग भी होगा | लेकिन, क्योंकि उदयकाल में प्रतिपदा तिथि नहीं है इसलिए तेरह अप्रैल से ही सम्वत्सर का आरम्भ माना जाएगा |
इस वर्ष का राजा, मन्त्री तथा वर्षा का अधिकार मंगल के पास है | वित्त मन्त्रालय गुरु अर्थात बृहस्पति को प्राप्त हुआ है | धान्येश यानी फसलों का स्वामी बुध है, रसेश यानी सभी प्रकार के रसों के स्वामी सूर्य, निरेशेश यानी धातु के स्वामी शुक्र तथा फलेश यानी फलों और सब्ज़ियों के स्वामी चन्द्र हैं | इन सभी की अपनी अपनी व्याख्याएँ हैं जो इस लेख का विषय नहीं हैं | हम बात कर रहे हैं नवरात्र में कलश स्थापना की |
भारतीय वैदिक परम्परा के अनुसार किसी भी धार्मिक अनुष्ठान को करते समय सर्वप्रथम कलश स्थापित करके वरुण देवता का आह्वाहन किया जाता है | आश्विन और चैत्र माह की शुक्ल प्रतिपदा को घट स्थापना के साथ माँ दुर्गा की पूजा अर्चना आरम्भ हो जाती है | घट स्थापना के मुहूर्त पर विचार करते समय कुछ विशेष बातों पर ध्यान रखना आवश्यक होता है | सर्वप्रथम तो अमा युक्त प्रतिपदा – अर्थात सूर्योदय के समय यदि कुछ पलों के लिए भी अमावस्या तिथि हो तो उस प्रतिपदा में घट स्थापना शुभ नहीं मानी जाती | इसी प्रकार चित्रा नक्षत्र और वैधृति योग में घट स्थापना अशुभ मानी जाती है | माना जाता है कि चित्रा नक्षत्र में यदि घट स्थापना की जाए तो धन नाश और वैधृति योग में हो तो सन्तान के लिए अशुभ हो सकता है | साथ ही देवी का आह्वाहन, स्थापन, नित्य प्रति की पूजा अर्चना तथा विसर्जन आदि समस्त कार्य प्रातःकाल में ही शुभ माने जाते हैं | किन्तु यदि प्रतिपदा को सारे दिन ही चित्रा नक्षत्र और वैधृति योग रहें या प्रतिपदा तिथि कुछ ही समय के लिए हो तो आरम्भ के तीन अंश त्याग कर चतुर्थ अंश में घट स्थापना का कार्य आरम्भ कर देना चाहिए |
इस वर्ष यों तो प्रतिपदा तिथि का आरम्भ बारह अप्रैल को प्रातः आठ बजे के लगभग हो जाएगा जो तेरह अप्रैल को प्रातः सवा दस बजे तक रहेगी | किन्तु, प्रथमतः बारह अप्रैल को उदया तिथि नहीं है और साथ ही वैधृति योग भी बारह अप्रैल को दिन में लगभग ढाई बजे तक रहेगा | अतः घट स्थापना तेरह अप्रैल को ही की जाएगी | इस दिन सूर्योदय प्रातः 5:57 पर होगा और सूर्योदय के समय मीन लग्न में भगवान भास्कर होंगे, अश्विनी नक्षत्र, बव करण तथा विषकुम्भ योग होगा | साथ ही लग्न में बुधादित्य योग भी बन रहा है और द्विस्वभाव लग्न है जो घट स्थापना के लिए अत्युत्तम मानी जाती है | अतः प्रातः 5:57 से सवा दस बजे तक घट स्थापना का शुभ मुहूर्त है | जो लोग इस अवधि में घट स्थापना नहीं कर पाएँगे वे 11:56 से 12:47 तक अभिजित मुहूर्त में घट स्थापना कर सकते हैं |
घट स्थापना करते समय जो मन्त्र बोले जाते हैं उनका संक्षेप में अभिप्राय यही है कि घट में समस्त ज्ञान विज्ञान का, समस्त ऐश्वर्य का तथा समस्त ब्रह्माण्डों का समन्वित स्वरूप विद्यमान है | जैसे:
कलशस्य मुखे विष्णुः, कण्ठे रुद्रो समाहिताः |
मूले त्वस्य स्थितो ब्रह्मा, मध्ये मातृगणा: स्मृता: ||
अर्थात कलश के मुख में विष्णु, कण्ठ में रूद्र, मूल में ब्रह्मा तथा मध्य में समस्त षोडश मातृकाएँ स्थित हैं | कुक्षि में समस्त सागर, सप्तद्वीपों वाली वसुन्धरा स्थित है | साथ ही सारे वेद वेदांग भी कलश में ही समाहित हैं | सारी शक्तियाँ कलश में समाहित हैं | समस्त पापों का नाश करने के लिए जल के समस्त स्रोत इस कलश में निवास करें |
इस प्रकार घट में समस्त ज्ञान विज्ञान का, समस्त ऐश्वर्य का तथा समस्त ब्रह्माण्डों का समन्वित स्वरूप विद्यमान माना जाता है | किसी भी अनुष्ठान के समय ब्रह्माण्ड में उपस्थित शक्तियों का आह्वाहन करके उन्हें जागृत किया जाता है ताकि साधक को अपनी साधना में सिद्धि प्राप्त हो और उसकी मनोकामनाएँ पूर्ण हों | साथ ही घट स्वयं में पूर्ण है | सागर का जल घट में डालें या घट को सागर में डालें – हर स्थिति में वह पूर्ण ही होता है तथा ईशोपनिषद की पूर्णता की धारणा का अनुमोदन करता प्रतीत होता है “पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते” | इसी भावना को जीवित रखने के लिए किसी भी धार्मिक अनुष्ठान के समय घट स्थापना का विधान सम्भवतः रहा होगा |
नवरात्रों में भी इसी प्रकार घट स्थापना का विधान है | घट स्थापना के समय एक पात्र में जौ की खेती का भी विधान है | अपने परिवार की परम्परा के अनुसार कुछ लोग मिट्टी के पात्र में जौ बोते हैं तो कुछ लोग – जिनके घरों में कच्ची ज़मीन उपलब्ध है – ज़मीन में भी जौ की खेती करते हैं | किन्हीं परिवारों में केवल आश्विन नवरात्रों में जौ बोए जाते हैं तो कहीं कहीं आश्विन और चैत्र दोनों नवरात्रों में जौ बोने की प्रथा है | इन नौ दिनों में जौ बढ़ जाते हैं और उनमें से अँकुर फूट कर उनके नौरते बन जाते हैं जिनके द्वारा विसर्जन के दिन देवी की पूजा की जाती है | कुछ क्षेत्रों में बहनें अपने भाइयों के कानों में और पुरोहित यजमानों के कानों में आशीर्वाद स्वरूप नौरते रखते हैं | इसके अतिरिक्त कुछ जगहों पर शस्त्र पूजा करने वाले अपने शस्त्रों का पूजन भी नौरतों से करते है | कुछ संगीत के क्षेत्र से सम्बन्ध रखने वाले कलाकार अपने वाद्य यन्त्रों की तथा अध्ययन अध्यापन के क्षेत्र से सम्बद्ध लोग अपने शास्त्रों की पूजा भी इन नौरतों से करते हैं |
वास्तव में नवरात्रों में जौ बोना आशा, सुख समृद्धि तथा देवी की कृपा का प्रतीक माना जाता है | ऐसी भी मान्यता है कि सृष्टि के आरम्भ में सबसे पहली फसल जो उपलब्ध हुई वह जौ की फसल थी | इसीलिए इसे पूर्ण फसल भी कहा जाता है | यज्ञ आदि के समय देवी देवताओं को जौ अर्पित किये जाते हैं | एक कारण यह भी प्रतीत होता है कि अन्न को ब्रह्म कहा गया है – अन्नं ब्रह्म इत्युपासीत् (मनु स्मृति) – अर्थात अन्न को ब्रह्म मानकर उसकी उपासना करनी चाहिए, तथा अन्नं ब्रह्मा रसो विष्णुर्भोक्ता देवो माहेश्वर: (ब्रह्म वैवर्त पुराण, ब्रह्म खण्ड) अन्न ब्रह्मा है – रस विष्णु – तथा उन्हें भोग करने वाला माहेश्वर के समान होता है | इस प्रकार की उक्तियों का अभिप्राय यही है कि जिस अन्न और जल में ईश्वर का रूप दीख पड़ता है उसका भला कोई अपमान कैसे कर सकता है ? अतः उस अन्न रूपी ब्रह्म का सम्मान करने के उद्देश्य से भी सम्भवतः इस परम्परा का आरम्भ हो सकता है | आज न जाने कितने लोग ऐसे हैं जिन्हें दो समय भोजन भी भरपेट नहीं मिल पाता | और दूसरी ओर कुछ ऐसे लोग भी हैं जो अपनी प्लेट में इतना भोजन रख लेते हैं कि उनसे खाए नहीं बन पाता और वो भोजन कूड़े के डिब्बे में फेंक दिया जाता है | यदि हम अन्न रूपी ब्रह्म का सम्मान करना सीख जाएँ तो इस प्रकार भोजन फेंकने की नौबत न आए और बहुत से भूखे व्यक्तियों को भोजन उपलब्ध हो जाए | जौ बोने की परम्परा को यदि हम इस रूप में देखें तो सोचिये प्राणिमात्र का कितना भला हो जाएगा |
अस्तु! इन नवरात्रों में हम अन्न ब्रह्म का सम्मान करने की भावना से जौ की खेती अपने घरों में स्थापित करें… हमारी भावनाएँ उदात्त होंगी तो खेती भी फलेगी फूलेगी और कोई व्यक्ति रात को भूखा नहीं सो सकेगा… साथ ही जल का सम्मान करने की भावना से घट स्थापित करें…
“आनन्द” नाम के सम्वत्सर में कामना करते हैं कि यह वर्ष अपने नाम के अनुरूप ही समस्त रोग शोक का हरण करके सबको आनन्द और स्वास्थ्य प्रदान करे…
त्वामाश्रितानां न विपन्नराणां त्वामाश्रिता ह्याश्रयतां प्रयान्ति ||
माँ भगवती प्रसन्न होने पर समस्त रोगों का नाश कर देती हैं और कुपित होने पर सभी मनोवाँछित कामनाओं को नष्ट कर देती हैं | किन्तु जो लोग देवी की शरण में आते हैं उन पर स्वयं पर तो विपत्ति आती ही नहीं, अपने साथ आने वाले अन्य प्राणियों को भी विपत्ति से रक्षा करते हैं | अस्तु ! इन नवरात्रों में हम अन्न ब्रह्म का सम्मान करने की भावना से जौ की खेती अपने घरों में स्थापित करें… हमारी भावनाएँ उदात्त होंगी तो खेती भी फलेगी फूलेगी और कोई व्यक्ति रात को भूखा नहीं सो सकेगा… साथ ही जल का सम्मान करने की भावना से घट स्थापित करें… इसी कामना के साथ मंगलवार 13 अप्रैल चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से आरम्भ हो रहे नवरात्र पर्व की सभी को हार्दिक शुभकामनाएँ… माँ भवानी सभी का मंगल करें…
Friends! Navratri festival is near, from 13th April Navratri festivals are going to start. Almost all of us will have fast and will be busy to prepare some Falahari foods to eat during fasting. So why not make Khandavi from Singhada or Indian Water Chestnut flour… How? Let us learn from Archana Garg…
______________Dr. Purnima Sharma…
Khandavi from Singhada or Indian Water Chestnut flour… with Almond and Date Chutney…
Cooking time: 10 mins
Prep time :30 mins
Archana Garg
Serves :4
Ingredients
1 cup: Singhada Flour
2 cups: Mattha (buttermilk)
1/4 cup: Grated coconut
1/4 cup: Grated carrot
As per taste: Salt
2-3: Green Chillies
3-4: Singhade (Water Chestnut)
3-4 cut in round shape for decoration
capsicum: Few twigs for decoration
Coriander: For tadka
Oil: 5-6 spoons
Almonds: 1/4 cup
Coriander
3-4: Green Chillies
As per taste: Salt
2 tsp: lemon juice
Method to cook:
Mix atta with cold buttermilk. Make sure there are no lumps.
Heat a pan and add this mixture. Keep stirring till it resembles a halwa like texture. Take a little on a plate and see that it doesn’t stick.
Clean the kitchen slab and spread the mixture on the slab.
Put a plastic on top of it and spread it evenly using a belan (Rolling pin) into a thin layer.
Take out the plastic and cut into thin strips.
Keep it in a plate and add tadka of coconut, green chillies and coriander.
Decorate with carrot, capsicum, green chilli and coriander.
You can use Singhada for decoration
For chutney, grind green chillies, almond, coriander and salt in a mixer to a fine paste.
Add lime juice and enjoy with khandavi.
Nutrition value of Singhada: it is low in calories. It has potassium, zinc, iodine, vitamin B and E. It acts as a coolant and detoxifier.
चैत्र शुक्ल प्रतिपदा यानी तेरह अप्रैल मंगलवार से नवरात्र आरम्भ होने जा रहे हैं | विक्रम सम्वत 2078 का नाम आनन्द है तथा शक सम्वत 1943 का नाम प्लव है | इसी दिन से घट स्थापना तथा माँ दुर्गा के प्रथम स्वरूप “शैलपुत्री” की उपासना के साथ ही चैत्र नवरात्र – जिन्हें वासन्तिक और साम्वत्सरिक नवरात्र भी कहा जाता है – के रूप में माँ भवानी के नवरूपों की पूजा अर्चना आरम्भ हो जाएगी जो 21 अप्रैल को भगवान श्री राम के जन्मदिवस रामनवमी और कन्या पूजन के साथ सम्पन्न होगी | इसी दिन उगडी और गुडी पर्व भी है | साथ ही चौदह अप्रैल को बैसाखी का पर्व और पन्द्रह अप्रैल को पौहिला बैसाख भी है | सर्वप्रथम सभी को उगडी, गुडी पर्व, बैसाखी, पौहिला बैसाख और साम्वत्सरिक नवरात्रों की हार्दिक शुभकामनाएँ…
इस वर्ष का राजा और मन्त्री दोनों ही मंगल हैं | धान्येश यानी फसलों का स्वामी बुध है, मेघेश यानी वर्षा के स्वामी मंगल और चन्द्र हैं, रसेश यानी सभी प्रकार के रसों के स्वामी सूर्य, निरेशेश यानी धातु के स्वामी शुक्र तथा फलेश यानी फलों और सब्ज़ियों के स्वामी चन्द्र हैं | इस वर्ष यों तो प्रतिपदा तिथि का आरम्भ बारह अप्रैल को प्रातः आठ बजे के लगभग हो जाएगा जो तेरह अप्रैल को प्रातः सवा दस बजे तक रहेगी | किन्तु, प्रथमतः बारह अप्रैल को उदया तिथि नहीं है और साथ ही वैधृति योग भी बारह अप्रैल को दिन में लगभग ढाई बजे तक रहेगा | अतः घट स्थापना तेरह अप्रैल को ही की जाएगी | इस दिन सूर्योदय प्रातः 5:57 पर होगा और सूर्योदय के समय मीन लग्न में भगवान भास्कर होंगे, अश्विनी नक्षत्र, बव करण तथा विषकुम्भ योग होगा | साथ ही लग्न में बुधादित्य योग भी बन रहा है और द्विस्वभाव लग्न है जो घट स्थापना के लिए अत्युत्तम मानी जाती है | अतः प्रातः 5:57 से सवा दस बजे तक घट स्थापना का शुभ मुहूर्त है | जो लोग इस अवधि में घट स्थापना नहीं कर पाएँगे वे 11:56 से 12:47 तक अभिजित मुहूर्त में घट स्थापना कर सकते हैं | किन्तु साथ ही व्यक्तिगत रूप से घट स्थापना का मुहूर्त जानने के लिए अपने ज्योतिषी से अपनी कुण्डली के अनुसार मुहूर्त ज्ञात करना होगा | बुधवार 21 अप्रेल को कन्या पूजन के साथ ही नवरात्रों का विसर्जन हो जाएगा | अस्तु, सर्वप्रथम सभी को नव सम्वत्सर, गुडी पर्व, बैसाखी, पौहिला बैसाख और उगडी या युगादि की हार्दिक शुभकामनाएँ…
नवरात्रि के महत्त्व के विषय में विशिष्ट विवरण मार्कंडेय पुराण, वामन पुराण, वाराह पुराण, शिव पुराण, स्कन्द पुराण और देवी भागवत आदि पुराणों में उपलब्ध होता है | इन पुराणों में देवी दुर्गा के द्वारा महिषासुर के मर्दन का उल्लेख उपलब्ध होता है | महिषासुर मर्दन की इस कथा को “दुर्गा सप्तशती” के रूप में देवी माहात्मय के नाम से जाना जाता है | नवरात्रि के दिनों में इसी माहात्मय का पाठ किया जाता है और यह बुराई पर अच्छाई की विजय का प्रतीक माना जाता है | जिसमें 537 चरणों में सप्तशत यानी 700 मन्त्रों के द्वारा देवी के माहात्मय का जाप किया जाता है | इसमें देवी के तीन मुख्य रूपों – काली अर्थात बल, लक्ष्मी और सरस्वती की पूजा के द्वारा देवी के तीन चरित्रों – मधुकैटभ वध, महिषासुर वध तथा शुम्भ निशुम्भ वध का वर्णन किया जाता है | इस वर्ष नवरात्रों की तिथियाँ इस प्रकार हैं…
मंगलवार 13 अप्रैल चैत्र शुक्ल प्रतिपदा देवी के शैलपुत्री रूप की उपासना और घट स्थापना प्रातः 5:57 से सवा दस बजे तक मीन लग्न, बव करण और विषकुम्भ योग में, अभिजित मुहूर्त दिन में 11:56 से 12:47 तक
बुधवार 14 अप्रैल चैत्र शुक्ल द्वितीया देवी के ब्रह्मचारिणी रूप की उपासना, सूर्य का मेष राशि में संक्रमण, सौर नव वर्ष
गुरूवार 15 अप्रैल चैत्र शुक्ल तृतीया देवी के चंद्रघंटा रूप की उपासना, गणगौर, पौहिला बैसाख
शुक्रवार 16 अप्रैल चैत्र शुक्ल चतुर्थी देवी के कूष्माण्डा रूप की उपासना
शनिवार 17 अप्रैल चैत्र शुक्ल पञ्चमी देवी के स्कन्दमाता रूप की उपासना, लक्ष्मी पञ्चमी
रविवार 18 अप्रैल चैत्र शुक्ल षष्ठी देवी के कात्यायनी रूप की उपासना, स्कन्द षष्ठी, यमुना छठ, रामानुज जयन्ती
सोमवार 19 अप्रेल चैत्र शुक्ल सप्तमी देवी के कालरात्रि रूप की उपासना, चैत्र नवपद ओली आरम्भ
मंगलवार 20 अप्रेल चैत्र शुक्ल अष्टमी देवी के महागौरी रूप की उपासना
बुधवार 21 अप्रैल चैत्र शुक्ल नवमी देवी के सिद्धिदात्री रूप की उपासना, श्री राम जन्म महोत्सव – राम नवमी
माँ भगवती सभी का कल्याण करें… सभी को नव सम्वत्सर तथा नवरात्र की अग्रिम रूप से हार्दिक शुभकामनाएँ…
अभी दो दिन पूर्व रायपुर छत्तीसगढ़ में थे तो एक स्थान पर शीतला माता का मन्दिर देखा | ध्यान आया कि श्वसुरालय ऋषिकेश और पैतृक नगर नजीबाबाद में इसी प्रकार के
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शीतला माता के मन्दिर हैं | और तब स्मरण हो आया अपने बचपन का – जब होली के बाद आने वाली शीतलाष्टमी को शीतला माता के मन्दिर पर मेला भरा करता था जो बड़ों के लिए एक ओर जहाँ शीतला माता की पूजा अर्चना का स्थान होता था वहीं हम बच्चों के लिए मनोरंजन का माध्यम होता था |
चैत्र कृष्ण सप्तमी और अष्टमी को उत्तर भारत में शीतला माता की पूजा की जाती है | कुछ स्थानों पर यह पूजा सप्तमी को होती है और कुछ स्थानों पर अष्टमी को | वैसे शीतला देवी की पूजा अलग अलग स्थानों पर अलग अलग समय की जाती है | कहीं माघ शुक्ल षष्ठी को इसका आयोजन होता है तो कहीं वैशाख कृष्ण अष्टमी को तो कहीं चैत्र कृष्ण सप्तमी-अष्टमी को | कुछ स्थानों पर होली के बाद प्रथम सोमवार अथवा बुधवार को शीतला माता की पूजा का विधान है | किन्तु चैत्र कृष्ण पक्ष की सप्तमी और अष्टमी को शीतला पूजा का विशेष महत्त्व है | इस वर्ष शनिवार तीन अप्रैल को प्रातः छह बजे के लगभग विष्टि करण (भद्रा) और वरीयान योग में सप्तमी तिथि का आगमन हो रहा है | सूर्योदय तीन अप्रैल को प्रातः छह बजकर नौ मिनट पर हो रहा है | अतः सूर्योदय के बाद किसी भी समय शीतला सप्तमी की पूजा की जा सकती है | जो लोग अष्टमी को शीतला देवी की पूजा करते हैं उनके लिए चार अप्रैल को सूर्योदय से पूर्व चार बजकर चौदह मिनट के लगभग अष्टमी तिथि का आगमन होगा जो अर्द्धरात्र्योत्तर 2:59 तक रहेगी | उस दिन भगवान भास्कर छह बजकर सात मिनट पर उदित होंगे | अतः सूर्योदय के बाद किसी भी समय शीतलाष्टमी की पूजा की जा सकती है |
शीतला माता का उल्लेख स्कन्द पुराण में उपलब्ध होता है | इसके लिए पहले दिन सायंकाल के समय भोजन बनाकर रख दिया जाता है और अगले दिन उस बासी भोजन का ही देवी को भोग लगाया जाता है और उसी को प्रसाद के रूप में ग्रहण किया जाता है | इसका कारण सम्भवतः यही रहा होगा कि इसके बाद ऐसा मौसम आ जाता है जब भोजन बासी बचने पर खराब हो जाता है और उसे फिर से उपयोग में नहीं लाया जा सकता | और इसी कारण से कुछ स्थानों पर इसे “बासडा” अथवा “बसौड़ा” भी कहा जाता है | इस दिन लोग लाल वस्त्र, कुमकुम, दही, गंगाजल, कच्चे अनाज, लाल धागे तथा बासी भोजन से माता की पूजा करते हैं | शीतला देवी की पूजा मुख्य रूप से ऐसे समय में होती है जब वसन्त के साथ साथ ग्रीष्म का आगमन हो रहा होता है | चेचक आदि के संक्रमण का भी मुख्य रूप से ऋतु परिवर्तन का यही समय होता है |
शीतला माता का वाहन गर्दभ को माना जाता है तथा इनके हाथों में कलश, सूप, झाड़ू और नीम के पत्ते रहते हैं | इन सबका भी सम्भवतः यही प्रतीकात्मक महत्त्व रहा होगा कि इस ऋतु में प्रायः व्यक्तियों को चेचक खसरा जैसी व्याधियाँ हो जाती थीं | रोगी तीव्र ज्वर से पीड़ित रहता था और उस समय रोगी की हवा करने के लिए सूप ही उपलब्ध रहा होगा | नीम के पत्तों के औषधीय गुण तो सभी जानते हैं – उनके कारण रोगी के छालों को शीतलता प्राप्त होती होगी तथा उनमें किसी प्रकार के इन्फेक्शन से भी बचाव हो जाता होगा | स्कन्द पुराण में शीतला माता की पूजा के लिए शीतलाष्टक भी उपलब्ध होता है | वैसे शीतला देवी की पूजा करते समय निम्न मन्त्र का जाप किया जाता है:
वन्देsहम् शीतलां देवीं रासभस्थान्दिगम्बराम् |
मार्जनीकलशोपेतां सूर्पालंकृतमस्तकाम् ||
अर्थात गर्दभ पर विराजमान, दिगम्बरा, हाथ में झाड़ू तथा कलश और मस्तक पर सूप का मुकुट धारण करने वाली भगवती शीतला की हम वन्दना करते हैं | इसी मन्त्र से यह भी प्रतिध्वनित होता है कि शीतला देवी स्वच्छता की प्रतीक हैं – हाथ में झाडू इसी तथ्य की पुष्टि करती है कि हम सबको स्वच्छता के प्रति जागरूक और कटिबद्ध होना चाहिए, क्योंकि चेचक, खसरा तथा अन्य भी सभी प्रकार के संक्रमणों का मुख्य कारण तो गन्दगी ही है | साथ ही, समुद्रमन्थन से उद्भूत हाथों में कलश लिए आयुर्वेद के प्रवर्तक भगवान धन्वन्तरी की ही भाँति शीतला माता के हाथों में भी कलश होता है, सम्भवतः इस सबका अभिप्राय यही रहा होगा कि स्वच्छता और स्वास्थ्य के प्रति जन साधारण को जागरूक किया जाए, क्योंकि जहाँ स्वच्छता होगी वहाँ स्वास्थ्य उत्तम रहेगा, और स्वास्थ्य उत्तम रहेगा तो समृद्धि भी बनी रहेगी | सूप का भी यही तात्पर्य है कि परिवार धन धान्य से परिपूर्ण रहे |
देवी का नाम भी सम्भवतः इसी लोकमान्यता के कारण शीतला पड़ा होगा कि शीतला देवी की उपासना से दाहज्वर, पीतज्वर, फोड़े फुन्सी तथा चेचक और खसरा जैसे रक्त और त्वचा सम्बन्धी विकारों तथा नेत्रों के इन्फेक्शन जैसी व्याधियों में शीतलता प्राप्त होती है और ये व्याधियाँ निकट भी नहीं आने पातीं | आज के युग में भी शीतला देवी की उपासना स्वच्छता की प्रेरणा तथा उत्तम स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता के दृष्टिकोण से सर्वथा प्रासंगिक प्रतीत होती है… विशेष रूप से इस कोरोना काल में तो यही कहा जाएगा…
शीतला देवी की उपासना के लिए स्कन्द पुराण में शीतलाष्टक भी उपलब्ध होता है जो निम्नवत है…
अभी 28 और 29 तारीख को रंगों की बौछार होली का मदमस्त कर देने वाला पर्व है… तो आज होली से ही सम्बन्धित अपनी कुछ स्मृतियों को आपके साथ साँझा कर रहे
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हैं…
कल फाल्गुन शुक्ल एकादशी है, जिसे आमलकी एकादशी और रंग की एकादशी के नाम से भी जाना जाता है | इस दिन आँवले के वृक्ष की पूजा अर्चना के साथ ही रंगों का पर्व होली अपने यौवन में पहुँचने की तैयारी में होता है | बृज में जहाँ होलाष्टक यानी फाल्गुन शुक्ल अष्टमी से होली के उत्सव का आरम्भ हो जाता है वहीं काशी विश्वनाथ मन्दिर में फाल्गुन शुक्ल एकादशी से इस उत्सव का आरम्भ माना जाता है | होलाष्टक के विषय में जहाँ मान्यता है कि फाल्गुन शुक्ल अष्टमी को भगवान कृष्ण प्रथम बार राधा जी के परिवार से मिलने बरसाने गए थे तो वहाँ लड्डू बाँटे गए थे, वहीं काशी विश्वनाथ में रंग की एकादशी के विषय में मान्यता है कि इसी दिन भगवान शिव ने माता पार्वती को अपने घर लिवा लाने के लिए पर्वतराज हिमालय की नगरी की ओर प्रस्थान किया था |
होलाष्टक के विषय में बहुत सी कथाएँ और मान्यताएँ जन साधारण के मध्य प्रचलित हैं, किन्तु मान्यताएँ कुछ भी हों, कथाएँ कितनी भी हों, सत्य बस यही है कि होली का उत्साहपूर्ण रंगपर्व ऐसे समय आरम्भ होता है जब सर्दी धीरे धीरे पीछे खिसक रही होती है और गर्मी चुपके से अपने पैर आगे बढ़ाने की ताक में होती है | साथ में वसन्त की खुमारी हर किसी के सर चढ़ी होती है | फिर भला हर कोई मस्ती में भर झूम क्यों न उठेगा | कोई विरह वियोगी ही होगा जो ऐसे मदमस्त कर देने वाले मौसम में भी एक कोने में सूना सूखा और चुपचाप खड़ा रह जाएगा |
अपने पैतृक नगर नजीबाबाद की होली अक्सर याद आ जाती है | हमारे शहर में मालिनी नदी के पार छोटी सी काछियों की बस्ती थी जिसे कछियाना भी कहते थे | ये लोग मूल रूप से सब्ज़ियाँ उगाने का कार्य करते हैं | रंगपंचमी यानी फाल्गुन शुक्ल पंचमी से रात को भोजन आदि से निवृत्त होकर बस्ती के सारे स्त्री पुरुष चौपाल में इकट्ठा हो जाते थे | रात को सारंगी और बाँसुरी से काफी पीलू के सुर उभरने शुरू होते, धीरे धीरे खड़ताल खड़कनी शुरू होती, चिमटे चिमटने शुरू होते, मँजीरे झनकने की आवाज़ें कानों में आतीं और साथ में धुनुकनी शुरू होतीं ढोलकें धमार, चौताल, ध्रुपद या कहरवा की लय पर – फिर धीरे धीरे कंठस्वर उनमें मिलते जाते और आधी रात के भी बाद तक काफी, बिरहा, चैती, फाग, धमार, ध्रुपद, रसिया और उलटबांसियों के साथ ही स्वांग का जो दौर चलता तो अपने अपने घरों में बिस्तरों में दुबके लोग भी अपना सुर मिला देते | हमारे पिताजी को अक्सर वे लोग साथ में ले जाया करते थे और पिताजी की लाडली होने के कारण उनके साथ किसी भी कार्यक्रम में जाने का अवसर हम हाथ से नहीं जाने देते थे | तो जब हम बाप बेटी घर वापस लौटते थे तो वही सब गुनगुनाते और उसकी विषय में चर्चा करते कब में घर की सीढ़ियाँ चढ़ जाते थे हमें कुछ होश ही नहीं रहता था | और ऐसा नहीं था कि उस चौपाल में गाने बजाने वाले लोग कलाकार होते थे | सीधे सादे ग्रामीण किसान होते थे, पर होली की मस्ती जो कुछ उनसे प्रदर्शन करा देती थी वह लाजवाब होता था और इस तरह फ़जां में घुल मिल जाता था कि रात भर ठीक से नींद पूरी न होने पर भी किसी को कोई शिकायत नहीं होती थी, उल्टे फिर से उसी रंग और रसभरी रात का इंतज़ार होता था | तो ऐसा असर होता है इस पर्व में |
और रंग की एकादशी से तो सारे स्कूल कालेजों और शायद ऑफिसेज़ की भी होली की छुट्टियाँ ही हो जाया करती थीं | फिर तो हर रोज़ बस होली का हुडदंग मचा करता था | रंग की एकादशी को हर कोई स्कूल कॉलेज ज़रूर जाता था – अपने दोस्तों और टीचर्स के साथ होली खेले बिना भला कैसा रहा जा सकता था ? और टीचर्स भी बड़े जोश के साथ अपने स्टूडेंट्स के साथ उस दिन होली खेलते थे |
घरों में होली के पकवान बनने शुरू हो जाया करते थे | होलिका दहन के स्थल पर जो अष्टमी के दिन होलिका और प्रहलाद के प्रतीकस्वरूप दो दण्ड स्थापित किये गए थे अब उनके चारों ओर वृक्षों से गिरे हुए सूखे पत्तों, टहनियों, लकड़ियों आदि के ढेर तथा बुरकल्लों की मालाओं आदि को इकठ्ठा किया जाने का कार्यक्रम शुरू हो जाता था | ध्यान ये रखा जाता था कि अनावश्यक रूप से किसी पेड़ को न काटा जाए | हाँ शरारत के लिए किसी दोस्त के घर का मूढा कुर्सी या चारपाई या किसी के घर का दरवाज़ा होली की भेंट चढ़ाने में किसी को कोई आपत्ति नहीं होती थी | और ये कार्य लड़कियाँ नहीं करती थीं | विशेष रूप से हर लड़का हर दूसरे लड़के के घर के दरवाज़े और फर्नीचर पर अपना मालिकाना हक समझता था और होलिका माता को अर्पण कर देना अपना परम कर्त्तव्य तथा पुण्य कर्म समझता था | और इसी गहमागहमी में आ जाता था होलिकादहन का पावन मुहूर्त |
गन्ने के किनारों पर जौ की बालियाँ लपेट कर घर के पुरुष यज्ञ की सामग्री के द्वारा प्रज्वलित होलिका की परिक्रमा करते हुए आहुति देते थे और होलिका की अग्नि में भुने हुए इस गन्ने को प्रसादस्वरूप वितरित करते थे | अगली सुबह होलिका की अग्नि से हर घर का चूल्हा जलता था | रात भर होलिका की अग्नि पर टेसू के फूलों का रंग पकता था जो सुबह सुबह कुछ विशिष्ट परिवारों में भेजा जाता था और बाक़ी बचा रंग बड़े बड़े ड्रमों में भरकर होली के जुलूस में ले जाया जाता था और हर आते जाते को उस रंग से सराबोर किया जाता था | गुनगुना मन को लुभाने वाली ख़ुशबू वाला टेसू के फूलों का रंग जब घर में आता तो पूरा घर ही एक नशीली सी ख़ुशबू से महक उठता |
दोपहर को इधर सब नहा धोकर तैयार होते और उधर होली की ही अग्नि पर बना देसी घी का सूजी का गरमा गरमा हलवा प्रसाद के रूप में हर घर में पहुँचा दिया जाता | हलवे का प्रसाद ग्रहण करके और भोजनादि से निवृत्त होकर नए वस्त्र पहन कर शाम को सब एक दूसरे के घर होली मिलने जाते | अब त्यौहार आता अपने समापन की ओर | नजीबाबाद जैसे सांस्कृतिक विरासत के धनी शहर में भला कोई पर्व संगीत और साहित्य संगोष्ठी से अछूता रहा जाए ऐसा कैसे सम्भव था ? तो रात को संगीत और कवि गोष्ठियों का आयोजन होता जो अगली सुबह छह सात बजे जाकर सम्पन्न होता | रात भर चाय, गुझिया, समोसे, दही भल्ले पपड़ी चाट के दौर भी चलते रहते | यानी रंग की पञ्चमी से जो होली के गान का आरम्भ होता उसका उत्साह बढ़ते बढ़ते होलाष्टक तक अपने शैशव को पार करता हुआ रंग की एकादशी को किशोरावस्था को प्राप्त होकर होली आते आते पूर्ण युवा हो जाता था |
आज जब हर तरफ एक अजीब सी अफरातफरी का माहौल बना हुआ है, एक दूसरे पर जैसे किसी को भरोसा ही नहीं रहा गया है, ऐसे में याद आते हैं वे दिन… याद आते हैं वे लोग… उन्हीं दिनों और उन्हीं लोगों का स्मरण करते हुए, सभी को कल रंग की एकादशी के साथ ही अग्रिम रूप से होली की रंग भरी… उमंग भरी… हार्दिक शुभकामनाएँ… इन पंक्तियों के साथ…
होली है, हुडदंग मचा लो, सारे बन्धन तोड़ दो |
और नियम संयम की सारी आज दीवारें तोड़ दो ||
लाल पलाश है फूल रहा और आग लगी हर कोने में
कैसा नखरा, किसका नखरा, आज सभी को रंग डालो ||
माना गोरी सर से पल्ला खिसकाके देगी गाली
तीखी धार कटारी की है, मत समझो भोली भाली |
पर टेसू के रंग में इसको सराबोर तुम आज करो
शहद पगी गाली के बदले मुख गुलाल से लाल करो ||
पूरा बरस दबा रक्खी थी साध, उसे पूरी कर लो
जी भरके गाली दो, मन की हर कालिख़ बाहर फेंको ||
नहीं कोई है रीत, नहीं है कोई बन्दिश होली में
मन को जिसमें ख़ुशी मिले, बस ऐसी तुम मस्ती भर लो ||
जो रूठा हो, आगे बढ़के उसको गले लगा लो आज
बाँहों में भरके आँखों से मन की तुम कह डालो आज |
शरम हया की बात करो मत, बन्धन ढीले आज करो
नाचो गाओ धूम मचाओ, पिचकारी में रंग भर लो ||
गोरी चाहे प्यार के रंग में रंगना, उसका मान रखो
कान्हा चाहे निज बाँहों में भरना, उसका दिल रख लो |
डालो ऐसा रंग, न छूटे बार बार जो धुलकर भी
तन मन पुलकित हो, कुछ ऐसा प्रेम प्यार का रंग भर दो ||
________________________कात्यायनी डॉ पूर्णिमा शर्मा
कल यानी रविवार 21 मार्च को प्रातः सात बजकर सत्ताईस मिनट के लगभग विष्टि करण (भद्रा) और आयुष्मान योग में फाल्गुन शुक्ल अष्टमी तिथि का आरम्भ हो रहा है |
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इसी समय से होलाष्टक आरम्भ हो जाएँगे जो रविवार 28 मार्च को होलिका दहन के साथ ही समाप्त हो जाएँगे | 28 मार्च को उदयव्यापिनी पूर्णिमा सूर्योदय से पूर्व तीन बजकर सत्ताईस मिनट आरम्भ होकर अर्द्धरात्रि में बारह बजकर सत्रह मिनट तक रहेगी | इसी मध्य गोधूलि वेला में सायं छह बजकर सैंतीस मिनट से रात्रि आठ बजकर छप्पन मिनट तक होलिका दहन का मुहूर्त है, और उसके बाद रंगों की बरसात के साथ ही फाल्गुन कृष्ण प्रतिपदा से होलाष्टक समाप्त हो जाएँगे |
फाल्गुन मास की शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि से आरम्भ होकर पूर्णिमा तक की आठ दिनों की अवधि होलाष्टक के नाम से जानी जाती है और चैत्र कृष्ण प्रतिपदा को होलाष्टक समाप्त हो जाते हैं | होलाष्टक आरम्भ होने के साथ ही होली के पर्व का भी आरम्भ हो जाता है | इसे “होलाष्टक दोष” की संज्ञा भी दी जाती है और कुछ स्थानों पर इस अवधि में बहुत से शुभ कार्यों की मनाही होती है | विद्वान् पण्डितों की मान्यता है कि इस अवधि में विवाह संस्कार, भवन निर्माण आदि नहीं करना चाहिए न ही कोई नया कार्य इस अवधि में आरम्भ करना चाहिए | ऐसा करने से अनेक प्रकार के कष्ट, क्लेश, विवाह सम्बन्ध विच्छेद, रोग आदि अनेक प्रकार की अशुभ बातों की सम्भावना बढ़ जाती है | किन्तु जन्म और मृत्यु के बाद किये जाने वाले संस्कारों के करने पर प्रतिबन्ध नहीं होता |
फाल्गुन कृष्ण अष्टमी को होलिका दहन के स्थान को गंगाजल से पवित्र करके होलिका दहन के लिए दो दण्ड स्थापित किये जाते हैं, जिन्हें होलिका और प्रह्लाद का प्रतीक माना जाता है | फिर उनके मध्य में उपले (गोबर के कंडे), घास फूस और लकड़ी आदि का ढेर लगा दिया जाता है | इसके बाद होलिका दहन तक हर दिन इस ढेर में वृक्षों से गिरी हुई लकड़ियाँ और घास फूस आदि डालते रहते हैं और अन्त में होलिका दहन के दिन इसमें अग्नि प्रज्वलित की जाती है | ऐसा करने का कारण सम्भवतः यह रहा होगा कि होलिका दहन के अवसर तक वृक्षों से गिरी हुई लकड़ियों और घास फूस का इतना बड़ा ढेर इकट्ठा हो जाए कि होलिका दहन के लिए वृक्षों की कटाई न करनी पड़े |
Holika Dahan
पौराणिक मान्यता ऐसी भी है कि तारकासुर नामक असुर ने जब देवताओं पर अत्याचार बढ़ा दिए तब उसके वध का एक ही उपाय ब्रह्मा जी ने बताया, और वो ये था कि भगवान शिव और पार्वती की सन्तान ही उसका वध करने में समर्थ हो सकती है | तब नारद जी के कहने पर पार्वती ने शिव को प्राप्त करने के लिए घोर तप का आरम्भ कर दिया | किन्तु शिव तो दक्ष के यज्ञ में सती के आत्मदाह के पश्चात ध्यान में लीन हो गए थे | पार्वती से उनकी भेंट कराने के लिए उनका उस ध्यान की अवस्था से बाहर आना आवश्यक था | समस्या यह थी कि जो कोई भी उनकी साधना भंग करने का प्रयास करता वही उनके कोप का भागी बनता | तब कामदेव ने अपना बाण छोड़कर भोले शंकर का ध्यान भंग करने का दुस्साहस किया | कामदेव के इस अपराध का परिणाम वही हुआ जिसकी कल्पना सभी देवों ने की थी – भगवान शंकर ने अपने क्रोध की ज्वाला में कामदेव को भस्म कर दिया | अन्त में कामदेव की पत्नी रति के तप से प्रसन्न होकर शिव ने कामदेव को पुनर्जीवन देने का आश्वासन दिया | माना जाता है कि फाल्गुन शुक्ल अष्टमी को ही भगवान शिव ने कामदेव को भस्म किया था और बाद में रति ने आठ दिनों तक उनकी प्रार्थना की थी | इसी के प्रतीक स्वरूप होलाष्टक के दिनों में कोई शुभ कार्य करने की मनाही होती है |
वैसे व्यावहारिक रूप से पंजाब और उत्तर प्रदेश के कुछ भागों में होलाष्टक का विचार अधिक किया जाता है, अन्य अंचलों में होलाष्टक का कोई दोष प्रायः नहीं माना जाता |
अतः, मान्यताएँ चाहें जो भी हों, इतना निश्चित है कि होलाष्टक आरम्भ होते ही मौसम में भी परिवर्तन आना आरम्भ हो जाता है | सर्दियाँ जाने लगती हैं और मौसम में हल्की सी गर्माहट आ जाती है जो बड़ी सुखकर प्रतीत होती है | प्रकृति के कण कण में वसन्त की छटा तो व्याप्त होती ही है | कोई विरक्त ही होगा जो ऐसे सुहाने मदमस्त कर देने वाले मौसम में चारों ओर से पड़ रही रंगों की बौछारों को भूलकर ब्याह शादी, भवन निर्माण या ऐसी ही अन्य सांसारिक बातों के विषय में विचार करेगा | जनसाधारण का रसिक मन तो ऐसे में सारे काम काज भुलाकर वसन्त और फाग की मस्ती में झूम ही उठेगा…
इन सभी मान्यताओं का कोई वैदिक, ज्योतिषीय अथवा आध्यात्मिक महत्त्व नहीं है, केवल धार्मिक आस्थाएँ और लौकिक मान्यताएँ ही इस सबका आधार हैं | तो क्यों न होलाष्टक की इन आठ दिनों की अवधि में स्वयं को सभी प्रकार के सामाजिक रीति रिवाज़ों के बन्धन से मुक्त करके इस अवधि को वसन्त और फाग के हर्ष और उल्लास के साथ व्यतीत किया जाए…
रंगों के पर्व की अभी से रंग और उल्लास से भरी हार्दिक शुभकामनाएँ…
आज समस्त हिन्दू समाज भगवान शिव की पूजा अर्चना का पर्व महाशिवरात्रि का पावन पर्व मना रहा है | प्रतिवर्ष फाल्गुन मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को महाशिवरात्रि के व्रत का पालन किया जाता है, जिसे शिव पार्वती के विवाह का अवसर माना जाता है – अर्थात मंगल के साथ शक्ति का मिलन | कुछ पौराणिक मान्यताएँ इस प्रकार की भी हैं कि इसी दिन महादेव के विशालकाय स्वरूप अग्निलिंग से सृष्टि का आरम्भ हुआ था | जो भी मान्यताएँ हों, महाशिवरात्रि का पर्व समस्त हिन्दू समाज में बड़ी धूम धाम से मनाया जाता है | इसी दिन ऋषि बोधोत्सव भी है, जिस दिन आर्यसमाज के प्रवर्तक स्वामी दयानन्द को सच्चे शिवभक्त का ज्ञान प्राप्त हुआ था और उनके हृदय से उदगार फूटे थे कि सच्चा शिव किसी मन्दिर या स्थान विशेष में विराजमान मूर्ति में निवास नहीं करता, अपितु वह इस सृष्टि के प्राणिमात्र में विराजमान है, और इसलिए प्राणिमात्र की सेवा ही सच्ची ईश्वरभक्ति है |
आज दिन में दो बजकर 41 मिनट के लगभग विष्टि (भद्रा) करण और सिद्ध योग में चतुर्दशी तिथि का आगमन होगा जो कल दिन में लगभग तीन बजे तक रहेगी और उसके बाद अमावस्या तिथि आरम्भ हो जाएगी | अतः निशीथ काल की पूजा और अभिषेक इसी दिन मध्य रात्रि में बारह बजकर छह मिनट से लेकर बारह बजकर पचपन मिनट तक किया जाएगा | जिन लोगों को रात्रि में अभिषेक नहीं करना है और दिन में ही व्रत रखकर रात्रि में उसका पारायण करना चाहते हैं वे लोग भी इसी दिन व्रत रख सकते हैं | लेकिन जो लोग दिन में कुछ ही देर के लिए व्रत रखना चाहते हैं उन्हें कल दिन में व्रत रखकर अपराह्न तीन बजे तक व्रत का पारायण कर देना चाहिए |
जो लोग पूर्णतः वैदिक विधि विधान के साथ भगवान शंकर के चार अभिषेक करते हैं तो उनके लिए प्रथम प्रहर के अभिषेक का समय है आज सिंह लग्न में सायं 6:27 से आरम्भ होकर तुला लग्न में रात्रि 9:29 तक, द्वितीय प्रहर के अभिषेक का समय तुला लग्न में रात्रि 9:29 से आरम्भ होकर वृश्चिक लग्न में अर्द्ध रात्रि 12:31 तक, तृतीय प्रहर के अभिषेक का समय वृश्चिक लग्न में अर्द्ध रात्रि 12:31 से आरम्भ होकर कल धनु लग्न में सूर्योदय से पूर्व 3:32 तक और चतुर्थ प्रहर के अभिषेक का समय कल सूर्योदय से पूर्व धनु लग्न में 3:32 से आरम्भ होकर कुम्भ लग्न में प्रातः 6:34 तक रहेगा |
भगवान शिव की पूजा अर्चना जहाँ होगी वहाँ आनन्द और आशीर्वाद की वर्षा तो निश्चित रूप से होगी ही | शिव को तो कहा ही “औघड़दानी” जाता है | शिवरात्रि के पर्व के साथ बहुत सी कथाएँ भी जुड़ी हुई हैं और उन सभी कथाओं में कुछ न कुछ प्रेरणादायक उपदेश भी निहित हैं | लेकिन हमारे विचार से :
जन जन को शिव का रूप और कण कण को शंकर समझेंगे |
तो “शं करोतीति शंकरः” खुद ही सार्थक हो जाएगा ||
अर्थात – जो शं यानी शान्ति प्रदान करे वह शंकर – किन्तु शंकर भी तभी जन जन को शान्ति और कल्याण प्रदान करेंगे जब हम प्रकृति के कण कण में – प्रत्येक जन मानस में – शंकर का अनुभव करेंगे और साथ ही प्रकृति को तथा प्रकृति के मध्य निवास कर रहे किसी भी प्राणी को किसी प्रकार की हानि न पहुँचाने का संकल्प लेंगे – तभी वास्तव में शिवाराधन सार्थक माना जाएगा और तभी हमें अनुभव होगा कि हमारा रोम रोम प्रसन्नता से प्रफुल्लित होकर ताण्डव कर रहा है जो कि समस्त प्रकार की दुर्भावनाओं से मोक्ष तथा कल्याण का – शान्ति का प्रतीक होगा | साथ ही एक और महत्त्वपूर्ण तथ्य, शिवरात्रि अमावस्या के साथ आती है – यानी चन्द्रमा की नव प्रस्फुटित शीतल किरणों को आगे करके आती है – जो एक प्रकार से अन्धकार अर्थात सभी प्रकार के अज्ञान और कुरीतियों तथा दुर्भावनाओं पर प्रकाश अर्थात ज्ञान और सद्भावनाओं की विजय का भी प्रतीक है |
भगवान् शिव की महिमा का वर्णन तथा उनकी प्रार्थना के लिए बहुत सारे स्तोत्र और मन्त्र हमारे ऋषि मुनियों ने उच्चरित किये हैं – जिनमें “शिवाष्टक” भी अनेक प्रकार के हैं, जिनके भावार्थ भी प्रायः सामान ही हैं | उन्हीं में से आज प्रस्तुत है एक “शिवाष्टक”…
भाव है कि देवाधिदेव, समस्त गुणों से परे, विषपान करने वाले, दैत्यों का नाश करने वाले कल्पतरु के सामान सबकी मनोकामना पूर्ण करने वाले, जिनके वाम भाग में शैलपुत्री विराजमान हैं, ब्रह्मा और विष्णु भी जिनके चरणवन्दना करते हैं, जिनके मस्तक पर चन्द्रमा का मुकुट सुशोभित है, जटाओं में गंगा को धारण करने वाले, त्रिनेत्र, वृषभारूढ़, कामदेव का मर्दन करने वाले, समस्त चराचर का उद्भव, पालन और संहार करने वाले, पुनर्जन्म के कष्ट से मुक्ति प्रदान करने वाले, दीनों और अनाथों के नाथ विश्वनाथ शिव की हम वन्दना करते हैं… भगवान् शिव सबकी मनोकामनाओं को पूर्ण करें…
अस्तु, हम सभी प्रकृति के कण कण में शंकर का वास मानकर सभी के प्रति सद्भावना रखें तथा समाज में व्याप्त अनेक प्रकार की कुरीतियों पर विजय प्राप्त करने का प्रयास करें… इसी कामना के साथ सभी को महाशिवरात्रि पर्व की अनेकशः हार्दिक शुभकामनाएँ… भगवान शंकर सभी के जीवन में शान्ति और कल्याण की पावन गंगा प्रवाहित करें…