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Padma Shri Sindhu Tai Mai

Gunjan Khandelwal
Gunjan Khandelwal

पद्मश्री सिन्धु ताई माई

इतिहास के पन्नों में न खो जाएँ – गुँजन खण्डेलवाल

गुँजन खण्डेलवाल जी की आज की प्रस्तुति – सिन्धु ताई माई के आदिवासियों के पुनर्वास की प्रक्रिया में भीख माँगकर बच्चों को पालने से लेकर पद्मश्री बनने तक की कहानी…

अभी सन् 2022 में प्रविष्ट ही हुआ था की 4 जनवरी को समाचार पढ़ा, सिंधु ताई नहीं रहीं | वज्रपात सा हुआ कि कितने सारे बच्चे एक साथ अनाथ हो गए | थोड़ा बहुत उनके बारे में पढ़ा सुना था | पर के बी सी की एक कड़ी में महानायक अमिताभ बच्चन का उनको पैर छूकर सम्मान देना और सदा सिर को पल्लू से ढक कर रखते हुए उनका मुस्कुराता अपनत्व भरा चेहरा याद हो आया | स्त्रीत्व के सभी गुण ममत्व, मर्यादा, गरिमा और आत्मविश्वास से भरपूर थीं वो |

वर्धा के बेहद गरीब चरवाहे परिवार में अवांछित रूप में जन्मी वो चिंदी (चिंडी मराठी में) कहलाई गईं | सन् 1948 में उनका जन्म हुआ था | विपरीत परिस्थितियों के कारण पढ़ाई में गहन रुचि रखने के बावजूद वे केवल चौथी कक्षा तक पढ़ सकीं | 12 वर्ष की उम्र में उनका विवाह उनसे लगभग 20 वर्ष बड़े व्यक्ति से करवा दिया गया | उनकी पहली संतान का जन्म तबेले में हुआ जब वे 20 वर्ष की थी क्योंकि उनके पति ने उन्हें घर से निकल दिया था | मायके वालों ने सहारा नहीं दिया तो भटकते हुए वो चिकलदरा तक जा पहुंची | यहां भी अपने स्वाभाविक गुण अन्याय के विरुद्ध आवाज़ उठाते हुए आदिवासियों के पुनर्वास में मदद की |

अपने स्वयं के बच्चे को पालते हुए उन्हें स्टेशन पर एक और अनाथ बच्चा मिला जिसे उन्होंने अपना लिया | वो भीख मांग कर उन्हें पालती रहीं और उनके ‘बच्चों’ की संख्या बढ़ती गई | उनकी दिली इच्छा थी कि वे उन्हें स्वास्थ्य, शिक्षा व आश्रय दें सकें |

अपने शुरुआती दिन उन्होंने प्लेटफार्म पर बिताए व रातें श्मशान में क्योंकि वही स्थान उन्हें सुरक्षित लगा | धीरे धीरे स्वयं की बचत और संगठनों की मदद से अनेक बच्चों के आश्रय स्थल उन्होंने स्थापित किए | यहां बच्चों को नौकरी या काम धंधे में लग जाने तक रहने की स्वतंत्रता मिली | उनके पाले अनेक युवा देश – विदेश में कार्यरत है |

सिंधु ताई को डी. वाय. पाटिल इंस्टीट्यूट द्वारा मानद डॉक्टरेट भी दी जा चुकी है | उनकी बायोपिक ‘मी सिंधु ताई सपकाल’ 2010 लंदन फिल्म फेस्टिवल में वर्ल्ड प्रीमियर के लिए चुनी गई |

700 से भी अधिक पुरस्कारों से सम्मानित सिंधु ताई ने सारी राशि अनाथ बच्चों के घर बनाने में लगा दी | 2021 में वे राष्ट्रपति कोविद द्वारा पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित हुई |

इनके पति वृद्धावस्था में इनके पास आए तो सहृदयता का परिचय देते हुए उन्हें भी आश्रय दिया |

यूं हीं नहीं मिलती राही को मंज़िल,

With orphan children
With orphan children

एक जुनून सा दिल में जगाना होता है |

पूछा चिड़िया से कैसे बना आशियाना

बोली – भरनी पड़ती है उड़ान बार-बार

तिनका तिनका उठाना होता है |

बाल दिवस पर जन्मी सिंधु ताई ने बाल गोपालों के लिए जीवन समर्पित कर दिया | संघर्षों के मध्य मार्ग बनाती और बताती, माई सभी के लिए प्रेरणा है | भावपूर्ण श्रद्धांजलि | जय हिंद!

गुंजन खंडेलवाल

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Padmashree Harekala Hajabba

Gunjan Khandelwal
Gunjan Khandelwal

पद्मश्री हरेकला हजब्बा: अक्षरसंथ

इतिहास के पन्नों में न खो जाएँ – गुँजन खण्डेलवाल

सूती लुंगी व साधारण सी कमीज़ पहने, गले में गमछा डाले हजब्बा जब अपनी चप्पल उतारकर राष्ट्रपति कोविंद जी से अवॉर्ड लेने पहुंचे तो दर्शकों को कौतूहल और विस्मय हुआ | “सामने राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और कई बड़े बड़े लोग बैठे थे, मैं भला उनके सामने चप्पल कैसे पहन सकता हूं”, ऐसा विनम्रता की प्रतिमूर्ति हजब्बा का कहना था |

कर्नाटक के मंगलुरू के समीप न्यूपाडपु गांव के हजब्बा प्रतिदिन उधारी से संतरे लेकर बस डिपो पर बेचा करते थे | करीब 30 वर्ष पहले की एक छोटी सी घटना ने उनके मन पर गहरा प्रभाव डाला | एक विदेशी ने उनसे अंग्रेज़ी में संतरे का दाम पूछा, वे समझ नही पाए और चुप रह गए | अपने पढ़े लिखे नहीं होने की शर्मिंदगी को उन्होंने एक पॉजिटिव मिशन के रूप में लिया और अपने विद्यालय रहित गांव में स्कूल बनाने की ठान ली ताकि वे वहां के निर्धन बच्चों को शिक्षित कर सकें | अपनी स्वयं की बहुत मामूली बचत और अन्यों से सहयोग लेकर उन्होंने ये स्वप्न साकार किया | एक मस्जिद में छोटे बच्चो का पहला स्कूल बना जो आज बढ़ते बढ़ते बड़ा विद्यालय बन गया है |

Selling Oranges on the Street Harekala Hajabba
Selling Oranges on the Street Harekala Hajabba

हजब्बा के इस बिग ड्रीम को साकार करने में लोगों का बहुत सहयोग रहा | कृतज्ञता स्वरूप उनकी नाम पट्टिका स्कूल में लगवाई गई है | उन्हें अपने इस मिशन से संबंधित प्रत्येक घटना व व्यक्ति आज भी याद है | उनका एक कक्ष देश विदेश से प्राप्त अवार्डों से सज्जित है पर प्राप्त धनराशि वे स्कूल की ही मानते हैं |

शिक्षा का धर्म अन्य धर्मों से बड़ा है, संभवतः इसी लिए हर जाति के लोगों से उन्हें मदद मिली |

अल्जाइमर से ग्रस्त बीमार पत्नी, दो विवाह योग्य बेटियों और ‘पेड लेबरर’ बेटे के पिता हजब्बा प्रति दिन ये सब भूल कर स्वयं स्कूल के कक्ष खोलते हैं और भीतर जाने के पूर्व चप्पल उतरना नहीं भूलते और फिर निकल जाते हैं आज भी संतरे बेचने के काम पर, आंखों में अपने विद्यालय को कॉलेज बनता देखने का स्वप्न लिए जो कल साकार होगा |

स्वयं अशिक्षित होने पर भी, अन्यों को शिक्षित करने का हज्जबा का जज़्बा और विश्वास समाज सेवा के रूप में मिसाल बन गया है | इसी निश्चय और प्रयत्नों ने लोगों को उन्हें मदद देने को प्रेरित किया है |

“मैं तो अकेले ही चला था जानिब – ए मंज़िल मगर लोग साथ आते गए और कारवां बनता गया” | जय हिंद… गुँजन खण्डेलवाल