पाँच फरवरी को वसन्त पञ्चमी का उल्लासमय पर्व था… ऋतुराज वसन्त के स्वागत हेतु WOW India ने साहित्य मुग्धा दर्पण के साथ मिलकर डिज़िटल प्लेटफ़ॉर्म ज़ूम पर दो दिन काव्य संगोष्ठियों का आयोजन किया… द्वितीय कड़ी 5 फरवरी को आयोजित की गई जिसमें दोनों संस्थाओं के सदस्यों स्वरचित रचनाओं का पाठ किया… काव्य पाठ प्रस्तुत वाले वाले सदस्यों को सम्मानस्वरूप एक प्रशस्ति पत्र भी प्रदान किया गया है… सादर: डॉ पूर्णिमा शर्मा…
नमस्कार ! WOW India के सदस्यों की योजना थी कि कुछ कवि और कवयित्रियों की वासन्तिक रचनाओं से वेबसाइट में वसन्त के रंग भरेंगे, लेकिन स्वर साम्राज्ञी भारत
Lata Mangeshkar
कोकिला लता मंगेशकर जी के दिव्य लोक चले जाने के कारण दो दिन ऐसा कुछ करने का मन ही नहीं हुआ… जब सारे स्वर शान्त हो गए हों तो किसका मन होगा वसन्त मनाने का… लेकिन दूसरी ओर वसन्त भी आकर्षित कर रहा था… तब विचार किया कि लता दीदी जैसे महान कलाकार तो कभी मृत्यु को प्राप्त हो ही नहीं सकते… वे तो अपनी कला के माध्यम से जनमानस में सदैव जीवित रहते हैं…
नाम गुम जाएगा, चेहरा ये बदल जाएगा
मेरी आवाज़ ही पहचान है, गर याद रहे
और यही सब सोचकर आज इस कार्य को सम्पन्न कर रहे हैं… लता दीदी वास्तव में माता सरस्वती की पुत्री थीं… तभी तो उनका स्वर कभी माँ वाणी की वीणा जैसा प्रतीत होता है… कभी कान्हा की बंसी जैसा… तो कभी वासन्तिक मलय पवन संग झूलते वृक्षों के पत्रों के घर्षण से उत्पन्न शहनाई के नाद सरीखा… तभी तो नौशाद साहब ने अपने एक इन्टरव्यू में कहा भी था “लता मंगेशकर की आवाज़ बाँसुरी और शहनाई की आवाज़ से इस क़दर मिलती है कि पहचानना मुश्किल हो जाता है कौन आवाज़ कण्ठ से आ रही है और कौन साज़ से…” उन्हीं वाग्देवी की वरद पुत्री सुमधुर कण्ठ की स्वामिनी लता दीदी को समर्पित है इस पृष्ठ की प्रथम रचना… माँ वर दे… सरस्वती वर दे…
माँ वर दे वर दे / सरस्वती वर दे…
वीणा पर वह भैरव गा दे, जो सोए उर स्वतः जगा दे |
सप्त स्वरों के सप्त सिन्धु में सुधा सरस भर दे ||
माँ वर दे वर दे / सरस्वती वर दे…
गूँज उठें गायन से दिशि दिशि, नाच उठें नभ के तारा शशि |
Vasant Panchami
पग पग में नूतन नर्तन की चंचल गति भर दे ||
माँ वर दे वर दे / सरस्वती वर दे…
तार तार उर के हों झंकृत, प्राण प्राण प्रति हों स्पन्दित |
नव विभाव अनुभाव संचरित नव नव रस कर दे ||
माँ वर दे वर दे / सरस्वती वर दे…
वीणा पुस्तक रंजित हस्ते, भगवति भारति देवि नमस्ते |
मुद मंगल की जननि मातु हे, मुद मंगल कर दे ||
माँ वर दे वर दे / सरस्वती वर दे…
अब, वसन्त का मौसम चल रहा है… जो फाल्गुन मास से आरम्भ होकर चैत्र मास तक रहता है… फाल्गुन मास हिन्दू वर्ष का अन्तिम महीना और चैत्र मास हिन्दू नव वर्ष का प्रथम माह होता है… भारतीय वैदिक जीवन दर्शन की मान्यता कितनी उदार है कि वैदिक वर्ष का समापन भी वसन्तोत्सव तथा होली के हर्षोल्लास के साथ होता है और आरम्भ भी माँ भगवती की उपासना के उल्लास और भक्तिमय पर्व नवरात्रों के साथ होता है… तो प्रस्तुत हैं हमारे कुछ साथियों द्वारा प्रेषित वासन्तिक रचनाएँ… सर्वप्रथम प्रस्तुत है डॉ ऋतु वर्मा द्वारा रचित ये रचना… प्रेम वल्लरी
हवाओं को करने दो पैरवी,
हौले हौले फूलों को रंग भरने दो
बस चुपचाप रहो तुम,
प्रेम वल्लरी अंबर तक चढ़ने दो
किरनों आओ, आकर धो दो हृदय आंगन
अब यहां आकर रहा करेंगे, सूर्य आनन
धड़कनों को घंटनाद करने दो,
विवादों को शंखनाद करने दो
प्रेम वल्लरी…..
सौंदर्यमयी आएगी पहनकर / नीहार का दुशाला
तुम भी दबे पांव आना / अति सजग है उजाला
प्रेम प्रालेय को देह पर गिरने दो,
चश्म के चश्मों को नेह से भरने दो
प्रेम वल्लरी….
ये हृदयहीन जाड़ा, क्यूं गलाये स्वप्न?
तेरा अलाव सा आगोश, पिघलाये स्वप्न
कहीं दूर शिखरों पर बर्फ गिरती है, तो गिरने दो
जलती है दुनिया पराली सी, तो जलने दो
प्रेम वल्लरी…..
और अब, रेखा अस्थाना जी की रचना… सखी क्या यही है वसन्त की भोर?…
सखि क्या यही है वसन्त की भोर ?
खोल कपाट अलसाई नैनों से / देखा मैंने जब क्षितिज की ओर |
सुगंध मकरंद की भर गई / चला न पाई संयम का जोर ||
सखी कहीं यही तो नहीं वसन्त की भोर? |
फिर चक्षु मले निज मैंने / लगी तकन जब विटपों की ओर |
देख ललमुनियों का कौतुक / प्रेमपाश में मैं बंध गई
भीग उठे मेरे नयन कोर |
सखी यही तो नहीं वसन्त की भोर ||
फिर पलट कर देखा जब मैंने / बौराए अमुआ गाछ की ओर,
पिक को गुहारते वेदना में / निज साथी को बुलाते अपनी ओर |
देख उनकी वेदना, पीड़ा उठी मेरे पोर पोर |
सखी क्या यही है वसन्त की भोर ||
सुनकर भंवरे की गुंजार / पुष्प पर मंडराते करते शोर
अंतर भी मेरा मचल उठा |
सुन पाऊँ शायद मैं इस बार सखी
अपने प्रियतम के बोल |
लग रहा मुझको तो सखी यही है
अब वसन्त की भोर ||
मृदुल, सुगंधित, सुरभित बयार ने
आकर जब छुआ मेरे कोपलों को,
तन ऊर्जा से भर गया मेरा |
खुशी का रहा नहीं मेरा ओर-छोर |
अलि अब तो समझ ही गयी मैं,
यही तो है वसन्त की भोर ||
अब डॉ नीलम वर्मा जी का हाइकु…
बसंत-हाइकु
उन्मुक्त धरा
गा दिवसावसान
बसंत- गान
– नीलम वर्मा
अब पढ़ते हैं गुँजन खण्डेलवाल की रचना… पधार गए रति नरेश मदन…
सुप्त तितलियों ने त्याग निद्रा सतरंगी पंख दिए पसार,
सरसों ने फैलाया उन्मुक्त पीला आंचल, दी लज्जा बिसार
रंग बिरंगे पुष्पों से शोभित हुए उपवन – अवनि,
बालियों से अवगुंठित पहन हार, ऋतुराज ढूंढे सजनी,
झटक कर अपने पुराने वसन,
नूतन पत्र पंखों से वृक्ष करते अगुवाई,
आंख मिचौली खेलती धूप, स्निग्ध ऊष्म से देती बधाई,
लहलहाने लगे खेत, उपवन करते अभिनंदन,
ईख उचक उचक लहराते, झुक झुक करते वंदन,
आम्रमंजरी, नव नीम पल्लव, पीपल कर रहे नमन,
चिड़ियों की चहक बजाएं ढोल शहनाई,
प्रफुल्ल पक्षियों ने जल तरंग बजाई,
लचकती टहनियां झूमें, छेड़े जो मलय पवन,
आनंद, प्रेम रस में हिलोरे लेते धरती गगन,
कामदेव प्रिया पीत अमलतास बिछाए,
शीश पर धर मयूर पंख किरीट रतिप्रिय मुस्काए,
कुमकुमी उल्लास, गुनगुनाते प्रेम राग पधार रहे ऋतुराज मदन,
पधार गए रति नरेश मदन।।
और अब प्रस्तुत है अनुभा पाण्डे जी की रचना… लो दबे पाँव आ गया वसन्त है…
धरती की हरिता पर यौवन अनंत है,
दिनकर की छाँव में प्रस्फुटित मकरंद है, पल्लवित कोंपलों में मंद हलचल बंद है,
लो दबे पाँव आ गया बसंत है |
शुष्क पत्र के छोड़ गलीचे,
झुरमुट हटा निस्तेज डाल की,
उल्लास की पायल झनकाती,
नव-जीवन मदिरा छलकाती,
धनी चूनर पहने धरती सराबोर रसरंग है…
लो दबे पाँव आ गया बसंत है |
झूम रहीं डाली, कलियाँ,
पत्ते सर-सर कर डाल रहे,
खेतों में नाचे गेहूँ, सरसों,
नभचर उन्मुक्त हुए, गगन मानो तोल रहे,
धरती, बयार दोनों थिरक रहे संग हैं…
लो दबे पाँव आ गया बसंत है |
फिर से कोयल कूकेगी,
फिर से अमरायी फूटेगी,
ओट से जीवन झांकेगा,
शैथिल्य की तंद्रा टूटेगी,
सुप्त तम का क्षीण-क्षीण हो रहा अंत है…
लो दबे पाँव आ गया बसंत है |
नयनाभिराम, अनुपम ये दृश्य,
रति- मदन मगन कर रहे हों नृत्य,
देव वृष्टि कर रहे ज्यों पुष्य,
मधु-पर्व की रागिनी पर सृष्टि की लय- तरंग,
शीत के कपोल पर कल्लोल कर रहा बसंत है,
लो दबे पाँव आ गया बसंत है |
माँ झंकृत कर दो मन के तार,
अलंकृत हों उद्गार, विचार,
हे वीना- वादिनी! दे विद्या उपहार,
धनेश्वरी, वाक्येश्वरी माँ! प्रार्थना करबद्ध है…
लो दबे पाँव आ गया बसंत है |
लो दबे पाँव आ गया बसंत है ||
अब प्रस्तुत कर रहे हैं रूबी शोम द्वारा रचित ये अवधी गीत… आए गवा देखो वसन्त…
आय गवा देखो बसंत, पिया नहीं आए रे
देखो सखी मोर जिया, हाय घबराए रे -3
फूल गेंदवा से चोटी, मैंने सजाई रे,
देख देख दरपन मा खुद ही लजाई रे |
अंजन से आंख अपन आंज लिंहिं आज रे
पर मोर गुइयां देखो साजन अबहुं नहीं आए रे |
आय गवा देखो बसंत सखी पिया नहीं आए रे |
पियर पियर सारी और लाल च चटक ओढ़नी
पहिन मै द्वारे के ओट बार बार जाऊं रे |
आय गवा देखो बसंत पिया नहीं आए रे -3
पियर पियर बेर शिव जी को चढ़ाऊं रे
पूजा के बहाने अब तो पिया का पंथ निहारूं रे
आय गवा देखो बसंत पिया नहीं आए रे |
पांती लिख लिख भेज रही मै हृदय की ज्वाला जल रही
आ जाओ पिया फाग में रूबी तुमरी मचले रे |
आय गवा देखो बसंत पिया नहीं आए रे
देखो सखी मोर जिया हाय घबराए रे |
ये है नीरज सक्सेना की रचना… बसंत…
सखी आया वसंत सखी छाया वसंत
धरती से पतझड़ की सायें का अंत
बेलों में फूलों की खुशबू अनंत
सखी आया वसंत सखी छाया वसंत
रचा सरसों के खेतों में बासंती रंग
इठलाई अमुआ की डाली बौरों के संग
कोयलियां कि कुह कुह जगावें उमंग
सखी आया वसंत सखी छाया वसंत
बहे मंद मंद पवन लेके भीनी सुगंध
घटी सर्दी की चादर कुहासें का अंत
दिनकर की आभा से चमचम दिगंत
सखी आया वसंत सखी छाया वसंत
गूंजे भौरें की गुंजन मधुप चखें मरकंद
देख मौसम के रंग जुड़े प्रेम के प्रसंग
जगे आशा की किरणें जगे भाव जीवंत
सखी आया वसंत सखी छाया वसंत
बसंत पंचमी की हार्दिक शुभकामनाएं!
ये रचना श्री प्राणेन्द्र नाथ मिश्रा जी की है… आनन्द हो जीवन में…
नीरसता थी, नीरव था विश्व
हर ओर मौन छाया तब तक
मां सरस्वती की वीणा से
गूंजी झंकार नहीं जब तक |
अभिलाषा! ले आ राधातत्व
जीवन हो जाए कृष्ण भक्त,
शारदे की वीणा झंकृत हो
आलोक ज्ञान रस धरा सिक्त |
हो, कुसुम कली का कलरव हो
मन मारे हिलोरें दिशा दिशा
ढूंढती फिरे अमावस को
उत्सुक हो कर ज्योत्सना निशा |
झूमे पलाश, करे मंत्र पा
आहुति दे पवन, लिपट करके
नृत्यांगना बन कर वन देवी
नाचे पीपल से सिमट कर के |
यह पर्व है या यह उत्सव है
पावन मादकता है मन में
छूती वसंत की गलबहियां
कहतीं, आनंद हो जीवन में!
अब पढ़ते हैं नीरज सक्सेना जी की रचना… आया वसन्त…
सखी आया वसंत सखी छाया वसंत
धरती से पतझड़ की सायें का अंत
बेलों में फूलों की खुशबू अनंत
सखी आया वसंत सखी छाया वसंत
रचा सरसों के खेतों में बासंती रंग
इठलाई अमुआ की डाली बौरों के संग
कोयलियां कि कुह कुह जगावें उमंग
सखी आया वसंत सखी छाया वसंत
बहे मंद मंद पवन लेके भीनी सुगंध
घटी सर्दी की चादर कुहासें का अंत
दिनकर की आभा से चमचम दिगंत
सखी आया वसंत सखी छाया वसंत
गूंजे भौरें की गुंजन मधुप चखें मरकंद
देख मौसम के रंग जुड़े प्रेम के प्रसंग
जगे आशा की किरणें जगे भाव जीवंत
सखी आया वसंत सखी छाया वसंत
और अन्त में, डॉ रश्मि चौबे की रचना… देखो सखी, आया बसंत…
यहाँ मौन निमंत्रण देता, देखो ,सखी आया बसंत !
धरती का यौवन देख सखी, फिर मुस्काया बसंत |
यहाँ मौन निमंत्रण देता, देखो, सखी आया बसंत |
वीणा वादिनी की धुन पर, कोकिला पंचम स्वर में गाती,
गुलाब सा चेहरा खिलाए, कोपलों से मेहंदी रचाती,
सरसों की ओढ़ चुनरिया, मलयगिरि संग चली है,
आम्र की डाल बौराई है, जैसे कंगना पहन चली है,
और स्वर्णिम रश्मियों से, नरमाई, कुछ शरमाई सी,
धरती का यौवन देख सखी, फिर मुस्काया बसंत |
हरियाली का लहंगा देखो, कितने रंगों से सजाया है,
पीली-पीली चोली देखो, गेंदों ने हार पहनाया है,
पाँव में छोटे फूल बिछे, जैसे कालीन बिछाया है,
देखो सब मदहोश हुए हैं, मदन ने तीर चलाया है,
आज वसुधा ने दुल्हन बन, बसंत से ब्याह रचाया है,
यहां मौन निमंत्रण देता, देखो फिर मुस्काया बसंत |
चलो सखी हम नृत्य करें, आओ यह त्योहार मनाते हैं,
मन सप्त स्वरों में गाता है, पग ठुमक- ठुमक अब जाता है,
राधा -श्याम की मुरली में, मेरा हृदय रम जाता है |
गुप्त नवरात्रों में माँ दुर्गे ने, योगियों के सहस्रार खिलाए है,
आ चल विवाह के मंडप में सखी, आत्मा को परमात्मा से मिलाएं |
गुँजन खण्डेलवाल जी की आज की प्रस्तुति – सिन्धु ताई माई के आदिवासियों के पुनर्वास की प्रक्रिया में भीख माँगकर बच्चों को पालने से लेकर पद्मश्री बनने तक की कहानी…
अभी सन् 2022 में प्रविष्ट ही हुआ था की 4 जनवरी को समाचार पढ़ा, सिंधु ताई नहीं रहीं | वज्रपात सा हुआ कि कितने सारे बच्चे एक साथ अनाथ हो गए | थोड़ा बहुत उनके बारे में पढ़ा सुना था | पर के बी सी की एक कड़ी में महानायक अमिताभ बच्चन का उनको पैर छूकर सम्मान देना और सदा सिर को पल्लू से ढक कर रखते हुए उनका मुस्कुराता अपनत्व भरा चेहरा याद हो आया | स्त्रीत्व के सभी गुण ममत्व, मर्यादा, गरिमा और आत्मविश्वास से भरपूर थीं वो |
वर्धा के बेहद गरीब चरवाहे परिवार में अवांछित रूप में जन्मी वो चिंदी (चिंडी मराठी में) कहलाई गईं | सन् 1948 में उनका जन्म हुआ था | विपरीत परिस्थितियों के कारण पढ़ाई में गहन रुचि रखने के बावजूद वे केवल चौथी कक्षा तक पढ़ सकीं | 12 वर्ष की उम्र में उनका विवाह उनसे लगभग 20 वर्ष बड़े व्यक्ति से करवा दिया गया | उनकी पहली संतान का जन्म तबेले में हुआ जब वे 20 वर्ष की थी क्योंकि उनके पति ने उन्हें घर से निकल दिया था | मायके वालों ने सहारा नहीं दिया तो भटकते हुए वो चिकलदरा तक जा पहुंची | यहां भी अपने स्वाभाविक गुण अन्याय के विरुद्ध आवाज़ उठाते हुए आदिवासियों के पुनर्वास में मदद की |
अपने स्वयं के बच्चे को पालते हुए उन्हें स्टेशन पर एक और अनाथ बच्चा मिला जिसे उन्होंने अपना लिया | वो भीख मांग कर उन्हें पालती रहीं और उनके ‘बच्चों’ की संख्या बढ़ती गई | उनकी दिली इच्छा थी कि वे उन्हें स्वास्थ्य, शिक्षा व आश्रय दें सकें |
अपने शुरुआती दिन उन्होंने प्लेटफार्म पर बिताए व रातें श्मशान में क्योंकि वही स्थान उन्हें सुरक्षित लगा | धीरे धीरे स्वयं की बचत और संगठनों की मदद से अनेक बच्चों के आश्रय स्थल उन्होंने स्थापित किए | यहां बच्चों को नौकरी या काम धंधे में लग जाने तक रहने की स्वतंत्रता मिली | उनके पाले अनेक युवा देश – विदेश में कार्यरत है |
सिंधु ताई को डी. वाय. पाटिल इंस्टीट्यूट द्वारा मानद डॉक्टरेट भी दी जा चुकी है | उनकी बायोपिक ‘मी सिंधु ताई सपकाल’ 2010 लंदन फिल्म फेस्टिवल में वर्ल्ड प्रीमियर के लिए चुनी गई |
700 से भी अधिक पुरस्कारों से सम्मानित सिंधु ताई ने सारी राशि अनाथ बच्चों के घर बनाने में लगा दी | 2021 में वे राष्ट्रपति कोविद द्वारा पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित हुई |
इनके पति वृद्धावस्था में इनके पास आए तो सहृदयता का परिचय देते हुए उन्हें भी आश्रय दिया |
यूं हीं नहीं मिलती राही को मंज़िल,
With orphan children
एक जुनून सा दिल में जगाना होता है |
पूछा चिड़िया से कैसे बना आशियाना
बोली – भरनी पड़ती है उड़ान बार-बार
तिनका तिनका उठाना होता है |
बाल दिवस पर जन्मी सिंधु ताई ने बाल गोपालों के लिए जीवन समर्पित कर दिया | संघर्षों के मध्य मार्ग बनाती और बताती, माई सभी के लिए प्रेरणा है | भावपूर्ण श्रद्धांजलि | जय हिंद!
गुँजन खण्डेलवाल जी की आज की प्रस्तुति – छुटनी देवी के झारखण्ड की शेरनी बनने से लेकर पद्मश्री बनने तक की कहानी…
इक्कीसवीं सदी में जब तकनीक की दुनिया में हम कहां से कहां पहुंच गए हैं पर मानसिकता में बदलाव आज भी धीमी गति के समाचार की तरह ही है | अंधविश्वास, रूढ़िवादिता और अशिक्षा से झारखंड जैसे बहुत से राज्य अपने यहां इनसे रिलेटेड दुर्घटनाओं को रोक पाने में असहाय से हैं | पिछले दो दशक में तकरीबन पंद्रह सौ से अधिक महिलाएं ‘डायन प्रथा’ का शिकार हो काल कवलित हो चुकीं हैं | झारखंड के सराय केला – खरसोवा जिले के बीरबांस गाँव की रहने वाली छुटनी देवी की कहानी इसी अंधविश्वास से जन्मी है |
सितम्बर 1995 की घटना है, अपने ससुराल में ये सुखपूर्वक रह रही थी कि पड़ोस में रहने वाली एक लड़की बहुत बीमार हुई | ईर्ष्यावश या अज्ञान या अंधविश्वास कहें कि इन पर ‘डायन’ होने का आरोप लगाकर दंड स्वरूप 500 रुपए का जुर्माना वसूला गया | उसके बाद भी अगले दिन 40-50 लोगों ने इन्हें घर से घसीटा, मारा पीटा और मैला भी फेंका | इस सब की टीस आज भी उनके चेहरे पर लगी चोट के दाग में उभर आती है |
पति ने भी साथ छोड़ दिया तो अपने 3 बच्चो के साथ रातोरात ये उफनती खरकई नदी पार करके मायके आ गई | कुछ दिन बाद छुटनी देवी की माँ की मृत्यु हो गई और मजबूरन ये पेड़ के नीचे झोपड़ा बनाकर रहने लगी | मेहनत मजदूरी कर किसी तरह बच्चों का पालन पोषण करती रहीं |
1996-97 में भाग्य से इनकी मुलाकात ‘फ्लैक’ – फ्री लीगल एडवाइजरी कमेटी के सदस्यों से हुई जिससे इनकी कहानी मीडिया द्वारा चर्चित हुई | इन पर नैशनल
Chutni Mahato – Padma Shree Award
ज्योग्राफिक सोसायटी ने एक डॉक्यूमेंट्री भी बनाई | अब छुटनी देवी ने अपने जैसी ‘डायन’ करार कर दी जाने वाली महिलाओं की मदद की मुहिम छेड़ दी है |
छुटनी देवी आज ‘आशा’ के पुनर्वास केंद्र की निदेशक के रूप में काम कर रहीं हैं | अपने जैसी 65 से अधिक महिलाओं को ये ‘बलि’ होने से पूर्व पुनर्जीवन दे चुकी हैं | कहीं से भी ऐसी प्रताड़ना आदि की सूचना मिलते ही इनकी टीम आरोपियों के खिलाफ लीगल एक्शन लेने पहुंच जाती है | आज वे झारखंड की शेरनी कहलाती हैं |
अशिक्षित होने पर भी ये हिंदी, बंगला व उड़िया भाषा में माहिर हैं | अपने बच्चों को इन्होंने सुशिक्षित किया है | प्रताड़ित व निर्धन परिवार के कम से कम 10 से 15 लोगों को वो प्रतिदिन अपने खर्च से भोजन कराती हैं, इसमें कोई भी शासकीय मदद नहीं मिलती है |
छुटनी देवी उदहारण है उस साहसी महिला का जो जुल्म का शिकार बनी पर प्रतिकार स्वरूप अपने जैसी पीड़िताओं का सम्बल बन समाज की रूढ़िवादी व अंधविश्वासी सोच से लड़ रही हैं | नारी का ये ‘काली रूप’ भी वंदनीय है जहां वो कुप्रथा के राक्षस का उन्मूलन कर रही है | जय हिंद!
गुँजन खण्डेलवाल जी की आज की प्रस्तुति – मंजूनाथ यानी पद्मश्री मंजम्मा जोगती की मंजूनाथ से पद्मश्री मंजम्मा जोगती बनने तक की यात्रा की कहानी…
हम और आप विस्मयपूर्वक उस क्षण को निहार रहे थे जब मंजम्मा जोगती जी ने गरीमापूर्वक नृत्य मुद्रा में राष्ट्रपति कोविद जी का अभिवादन किया | बाद में उन्होंने बताया कि मैंने उनकी बुरी नजर उतारने का भी उपक्रम किया |
जी हां इन ट्रांसजेंडर्स को प्रायः शादी ब्याह या बच्चों के जन्म होने पर कुछ पैसे की मांग करते हुए पहचानते आए हैं | मंजूनाथ से मंजम्मा जोगती बनने की यात्रा बहुत बहुत कष्टप्रद थी | ट्रांसजेंडर्स सबसे पहले घर, फिर समाज में हमेशा से नकारे गए हैं |
मंजम्मा बताती हैं कि स्कूल के प्रारंभिक दिनों से, अपने हाव भाव से उपहास का पात्र बनती रहीं | यहां तक कि उन्होंने आत्महत्या तक का प्रयास किया | पर शायद उन्हें बहुत ऊपर उठना था | ऐसे ही एक बार, एक पिता पुत्र की जोड़ी ने उनका ध्यान आकर्षित किया, जिसमें पिता गायन करते व पुत्र नृत्य कर रहा था | ये था जोगप्पा समुदाय द्वारा किया जाने वाला देवी येलम्मा को प्रसन्न करने हेतु जोगती नृत्य |
Manjamma Jogati during a performance
मंजम्मा जी की नृत्य में रुचि बढ़ी तो उन्हें कालव्वा नाम के बड़े लोक कलाकार से मिलवाया गया | उनके सान्निध्य में वे मंझती गई | ज्योति नृत्य की आज सबसे बड़ी पहचान मंजम्मा ही है, पर वे कहती हैं सच पूछिए तो ये नृत्य मैंने इसलिए नही सीखा कि मेरा बहुत मन था वरन इसलिए कि अपनी भूख से लड़ सकूं |
कर्नाटक के कल्लूकंब गांव में इनका जन्म हुआ, पर इनके ट्रांसजेंडर होने का पता लगते ही इन्हें घर से निकल कर भीख तक मांगनी पड़ी जिसको भी कई बार छीन लिया जाता था | एक दिन छह लोगों द्वारा उनके साथ दुष्कर्म की भी घटना हुई | पर उस पौराणिक पक्षी फीनिक्स की तरह, जो पूरा जल जाने के बाद अपनी ही राख से पुनर्जीवित हो उठता है, मंजम्मा ने कभी हार नहीं मानी |
Manjamma Jogati an inspiration
पिछले 35 वर्षों में वे एक हजार से अधिक नृत्य प्रस्तुतियां दी चुकी हैं | 2019 में वो कर्नाटक जनपद अकादमी की पहली ट्रांस वुमन प्रेसिडेंट बनी | अभावों, तिरस्कार और सोशल स्टिग्मा के दायरे से बाहर आना और पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित होना निःसंदेह गौरवपूर्ण है | आज उनकी बायोग्राफी ‘नाडुवे सुलिवा हेन्नु’ हावेरी जिले के स्कूलों व कर्नाटक विश्वविद्यालय के सिलेबस का अंग है | थिएटर कलाकार, नृत्यांगना, गायन व सोशल एक्टिविस्ट के रूप में अनेक पुरस्कारों से सम्मानित मंजम्मा चाहती हैं ट्रांसजेंडर लोगों के प्रति समाज की सोच व रवैये में बदलाव और साथ ही उनके जैसे लोगों के लिए नौकरी व काम करने की सुविधाएं |
इकबाल के कहे शेर ‘ख़ुदी को कर बुलंद इतना कि हर तक़दीर से पहले, ख़ुदा बंदे से ख़ुद पूछे बता तेरी रज़ा क्या है’, का ख़याल हो आया! जय हिन्द!
कुतुबमीनार से ऊँचा है यह किला, राजा की चिता पर बैठकर रानी ने दी थी जान
जोधपुर का मेहरानगढ़ किला 120 मीटर ऊंची एक चट्टान पहाड़ी पर निर्मित है | इस तरह से यह किला दिल्ली के कुतुबमीनार की ऊंचाई (73मीटर) से भी ऊंचा है | किले के परिसर में सती माता का मंदिर भी है | 1843 में महाराजा मान सिंह का निधन होने के बाद उनकी पत्नी ने चिता पर बैठकर जान दे दी थी | यह मंदिर उसी घटना की
Inside the Mehrangarh Fort
स्मृति में बनाया गया था | .
आसमान से कुछ यूं नज़र आता है जोधपुर का ये खूबसूरत क़िला
Aerial view of Mehrangarh Fort
मेहरानगढ़ किला एक पहाड़ी पर बनाया गया जिसका नाम ‘भोर चिड़िया’ बताया जाता है | ये क़िला अपने आप में जोधपुर का इतिहास देख चुका है, इसने युद्ध देखे हैं और इस शहर को बदलते भी देखा है | .
10 किलोमीटर में फैली है किले की दीवार
इस किले के दीवारों की परिधि 10 किलोमीटर तक फैली है | इनकी ऊंचाई 20 फुट से 120 फुट तथा चौड़ाई 12 फुट से 70 फुट तक है | इसके परकोटे में दुर्गम रास्तों वाले सात आरक्षित दुर्ग बने हुए थे | घुमावदार सड़कों से जुड़े इस किले के चार द्वार हैं | किले के अंदर कई भव्य महल, अद्भुत नक्काशीदार दरवाजे, जालीदार खिड़कियां हैं | .
500 साल से पुराना है यह किला
जोधपुर शासक राव जोधा ने 12 मई 1459 को इस किले की नींव डाली और महाराज जसवंत सिंह (1638-78) ने इसे पूरा किया | इस किले में बने महलों में से उल्लेखनीय हैं मोती महल, फूल महल, शीश महल, सिलेह खाना, दौलत
View from Mehrangarh Fort
खाना आदि | इन महलों में भारतीय राजवंशों के साज सामान का विस्मयकारी संग्रह निहित है | .
1965 के युद्ध में देवी ने की थी इसकी रक्षा
राव जोधा को चामुंडा माता में अथाह श्रद्धा थी | चामुंडा जोधपुर के शासकों की कुलदेवी रही हैं | राव जोधा ने 1460 में मेहरानगढ़ किले के समीप चामुंडा माता का मंदिर बनवाया और मूर्ति की स्थापना की | माना जाता है कि 1965 के भारत-पाक युद्ध के दौरान सबसे पहले जोधपुर को टारगेट बनाया गया | माना जाता है कि इस दौरान माता के कृपा से यहां के लोगों का बाल भी बांका नहीं हुआ था | .
किले के छत पर रखे तोपों से होती थी 6 किलोमीटर के क्षेत्र की रक्षा
Handprints of Sati in Mehrangarh Fort
इस किले के दीवारों पर रखे भीमकाय तोपों से आस-पास का छह किलोमीटर का भू-भाग सुरक्षित रखा जाता था | किले के दूसरे दरवाजे पर आज भी पिछले युद्धों के दौरान बने तोप के गोलों के निशान मौजूद हैं | .
आज भी मौजूद हैं रानियों के आत्मदाह के निशान
अंतिम संस्कार स्थल पर आज भी सिंदूर के घोल और चांदी की पतली वरक से बने
हथेलियों के निशान पर्यटकों को उन राजकुमारियों और रानियों की याद दिलाते हैं |
आँवले के गुणों के विषय में तो हम सभी जानते हैं | और ठण्ड के मौसम में जब ताज़ा ताज़ा आँवला आता है तब तो कई तरह से उसे काम में लिया जाता है | इसी तरह से आज हम बनाते हैं आँवले का हलवा… स्वास्थ्यवर्द्धक भी और खाने में स्वाद भी…
सामग्री :
आधा किलो आँवला
चीनी आधा किलो (पर यह आपके स्वाद पर भी निर्भर करता है)
एक टुकड़ा दालचीनी
एक छोटी इलायची
एक लौंग लें पीस कर पाउडर बना कर रख लें
एक बड़ा चम्मच देसी घी |
विधि :
आँवले को थोड़ा पानी डालकर स्टीम दें | तीन स्टीम के बाद उतार कर, ठण्डा होने पर उसकी गुठली अलग कर उसे मिक्सी में पीस लें | कढ़ाई गर्म कर उसमें घी डालें और पीसे आँवले को खूब भूनें |
इधर चीनी की एक तार की चाशनी बनाकर तैयार रखें | जब आँवले का पानी सूख जाए तब उस चाशनी को आँवले के पेस्ट में डालकर चलाएँ | फिर चुटकी भर जो आपने मसाला बनाया था डालकर खूब चलाएँ | सूखने पर उतार लें |
बर्फी की विधि :
अब अगर आप इसी पेस्ट में भुना हुआ सिंघाड़े का आटा मिला देंगे तो यह थोड़ा कड़ा पड़ जाएगा | इन दोनों को अच्छे से मिलाएँ | उसे आप थाली में घी लगा कर जमाकर बर्फी का आकार दे सकती हैं | ऊपर से ड्राईफ्रूट्स से डेकोरेट भी कर सकती हैं |
फायदे :
इसमें प्रचुर मात्रा में आयरन, कैल्शियम, व विटामिन सी होता है | इसे आप रोटी, पराठे या फिर ब्रेड में लगाकर बच्चों को दे सकती हैं | यह रक्त की कमी की पूर्ति कर आँखों की रोशनी के लिए भी फायदेमंद है | नियमित उपयोग से बाल झड़ने बंद हो जाते हैं |
Different uses of Amla
थोड़ा कसैला अवश्य रहता है पर गुणकारी सोने के समान है |
शुगर पेशेंट्स चीनी का उपयोग सोच समझ कर करें |
बुजुर्गों की कहावत :
बुजुर्गों का कहा और आँवले का खाया बाद में नजर आता है |
सामाजिक दायित्व :
कार्तिक मास भर संपन्न व्यक्ति को किसी न किसी रूप में आँवले का दान गरीबों को अवश्य करें क्योंकि वे खरीद कर नहीं खा पाते | छठपूजा में भी आँवला चढ़ता है और प्रसाद रूप में सभी को दिया भी जाता है |
एक आँवले का गुण एक तोले सोने के समान है |
किसी भी प्रकार की मेरी त्रुटि के लिए क्षमा👏हम फिर मिलेंगे आँवले के साथ किसी अन्य रूप में |
वैतूल निवासी गुँजन खण्डेलवाल जी WOW India की ऐसी सदस्य हैं जो वैतूल में रहते हुए भी संस्था से जुडी हुई हैं और संस्था के Online कार्यक्रमों में नियमित रूप से
Gunjan Khandelwal
भाग लेती रहती है… English Scholar और अंग्रेज़ी की ही प्रोफ़ेसर होने के साथ ही हिन्दी भाषा में गहरी रूचि रखती हैं और हिन्दी भाषा की बहुत अच्छी और प्रभावशाली कवयित्री होने के साथ ही एक सुलझी हुई लेखिका भी हैं… बहुत से सम सामयिक विषयों पर अपनी सुलझी हुई राय रखती हैं… कुछ ऐसे व्यक्तित्वों के विषय में इन्होंने लिखना आरम्भ किया है जो जन मानस पर गहरी छाप छोड़ जाते हैं… इससे पहले की ये कहीं इतिहास के पन्नों में गुम हो जाएँ… ताकि हम और आप इनसे कुछ प्रेरणा प्राप्त कर सकें… इनसे कुछ सीख सकें… प्रस्तुत है इनकी ये रचना… यद्यपि इस महान व्यक्तित्व के विषय में आज बहुत लोग परिचित हैं, किन्तु आज हम इसके विषय में गुँजन जी की दृष्टि से देखने का प्रयास करेंगे… डॉ पूर्णिमा शर्मा…
क्यों भई तुम्हारी कलम को भी कोरोना हो गया था क्या ? कब तक ‘क्वारनटाइन’ रहेगी ?”
बात उपहास में पूछी गई, पर लगा शायद पिछले दहशत भरे वक्त का ‘कोरोना इफेक्ट’ तन मन और सभी एक्टिविटीज को कहीं न कहीं प्रभावित तो कर ही गया है | इस बार दीपावली कुछ कुछ उत्साह भरी रही की अपनों से मिलना जुलना हुआ, पर कितने घरों की शोक की पहली दीपावली मन को व्यथित कर गई | खैर…
जीवन तो आगे बढ़ता ही है | ऐसे में सन 2021 के पद्म पुरस्कारों की सूची के कुछ नाम और परिचय बहुत प्रेरक लगे | साथ ही इन पुरस्कारों की ‘क्रेडिबिलिटी’ को बढ़ा गए | महिलाएँ जहाँ कहीं की भी हों, जो भी हासिल करती हैं वो उनके लिए सदा से धारा के विपरीत तैरने जैसा होता है | ये बहुत कंट्रोवर्शियल हो सकता है पर…
Mrs. Tulsi Gowda
जाने भी दीजिए ना ! पर इस समय जिस सम्मान और तालियों की गड़गड़ाहट के बीच जंगल की पगडंडियों से चल कर राष्ट्रपति भवन के ‘रेड कार्पेट’ तक नंगे पांव जिन्होंने ये सफ़र तय किया है वे हैं श्रीमती तुलसी गौड़ा जी | कर्नाटक में हलक्की जनजाति से संबंध रखने वाली तुलसी गौड़ा जी होनाली गांव के बेहद ही गरीब परिवार की हैं | यहां तक की वो कभी विद्यालय भी नहीं जा सकीं | प्रकृति के प्रति अधिक लगाव होने के कारण उनका अधिक समय जंगल में ही बीता और उनका पौधों और जड़ी बूटियों का ज्ञान विस्तृत होता गया | आज 77 वर्ष की आयु में वो ‘इनसाइक्लोपीडिया ऑफ फॉरेस्ट’ के रूप में विख्यात हैं | पिछले 60 वर्षों में उन्होंने तीस हजार से अधिक वृक्ष लगाए हैं | उनके प्रयासों को पहले भी इंदिरा प्रियदर्शिनी वृक्ष मित्र अवॉर्ड, राज्योत्सव अवॉर्ड और कविता मेमोरियल जैसे अवार्डो द्वारा सराहना मिल चुकी है | वे वन विभाग में कार्यरत हैं जहां वे लगातार पौधों के बीज एकत्र करती रहती हैं, गर्मी तक उनका रखरखाव करते हुए उपयुक्त समय पर जंगल में बो देती हैं |
अपने पारंपरिक सूती आदिवासी वस्त्र में राष्ट्रपति कोविद जी से पुरस्कार ग्रहण करने वाली तुलसी गौड़ा जी अपनी सादगी और पर्यावरण मित्र के रूप में नई पीढ़ी से उत्साह पूर्वक अपना ज्ञान और अनुभव बांटती है | आशा है उनके द्वारा रोपित ये बीज आगे भी अंकुरित व पल्लवित होते रहेंगे | जय हिंद |
आज हर कोई डर के साए में जी रहा है | कोरोना ने हर किसी के जीवन में उथल पुथल मचाई हुई है | आज किसी को फोन करते हुए, किसी का मैसेज चैक करते हुए हर कोई डरता है कि न जाने क्या समाचार मिलेगा | जिससे भी बात करें हर दिन यही कहता मिलेगा कि आज उसके अमुक रिश्तेदार का स्वर्गवास हो गया कोरोना के कारण, आज उसका अमुक मित्र अथवा परिचित कोरोना की भेंट चढ़ गया | पूरे के पूरे परिवार कोरोना की चपेट में आए हुए हैं | हर ओर त्राहि त्राहि मची हुई है | साथ ही, जब समाचार मिलते हैं कि ऑक्सीजन की कमी है या लूट हो रही है, दवाओं की जमाखोरी के विषय में समाचार प्राप्त होते हैं तो इस सबको जानकार भयग्रस्त होना स्वाभाविक ही है | लेकिन हम एक कहावत भूल जाते हैं “जो डर गया वो मर गया” और “डर के आगे जीत है”… जी हाँ, डरने से काम नहीं चला करता | किसी भी बात से यदि हम भयभीत हो जाते हैं तो इसका अर्थ है कि हमारी संकल्प शक्ति दृढ़ नहीं है… और इसीलिए हम उस बीमारी को या जिस भी किसी बात से डर रहे हैं उसे अनजाने ही निमन्त्रण दे बैठते हैं… और समय से पूर्व ही हार जाते हैं… हम यह नहीं कहते कि कोरोना से डरा न जाए… बिल्कुल डरना चाहिए… लेकिन इसलिए नहीं कि हमें हो गया तो क्या हो गया… बल्कि इसलिए कि अपनी और दूसरों की सुरक्षा के लिए हम कोरोना के लिए बताए गए दिशा निर्देशों का कड़ाई से पालन करें…
डर तो किसी भी बात का हो सकता है | किसी को अपनी असफलता का भय हो सकता है, कोई भविष्य के विषय में चिन्तित हो सकता है, कोई रिजेक्ट किये जाने के भय से चिन्तित हो सकता है, किसी को अपना कुछ प्रिय खो जाने का भय हो सकता है, किसी को दुर्घटना का भय हो सकता है तो किसी को मृत्यु का भय और भी न जाने कितने प्रकार के भयों से त्रस्त हो सकता है | इसका परिणाम क्या होता है… कि हम अपना वर्तमान का सुख भी नहीं भोग पाते | जो व्यक्ति डर डर कर जीवन यापन करता है वह कभी प्रसन्न रह ही नहीं सकता |
हम अपने भयों से – परिस्थितियों से – पलायन कर जाना चाहते हैं | उनका सामना करने का साहस हम नहीं जुटा पाते | लेकिन हर समय डर डर कर जीना या परिस्थितियों से पलायन करना तो समस्या का समाधान नहीं | इससे तो परिस्थितियाँ और भी बिगड़ सकती हैं | क्योंकि नकारात्मकता नकारात्मकता को ही आकर्षित करती है – Negativity attracts negativity” इसलिए सकारात्मक सोचेंगे तो हमारे चारों ओर सकारात्मकता का एक सुरक्षा चक्र निर्मित हो जाएगा और हम बहुत सीमा तक बहुत सी दुर्घटनाओं से बच सकते हैं | प्रयोगों के द्वारा ये बात सिद्ध भी हो चुकी है अनेकों बार |
तो डर को दूर भगाने के लिए सबसे पहले हमें उसका सामना करने की सामर्थ्य स्वयं में लानी होगी | इसके लिए सबसे पहले हमें यह स्वीकार करना होगा कि हाँ हम भयग्रस्त हैं | और फिर जिस बात से भी हम डरे हुए हैं वह बात हमें कितना बड़ा आघात पहुँचा सकती है इस विषय में सोचना होगा कि यदि हम डरकर बैठ रहे तो हमारी हार होगी और उसका कितना बड़ा मूल्य हमें चुकाना पड़ सकता है | कितना कष्ट हमें उस परिस्थिति से हो सकता है जिसके विषय में सोच कर भी हमें डर लगता है इस विषय में भी सोचना होगा | और तब अपने भीतर से ही हममें साहस आएगा कि या तो हम उस परिस्थिति को आने ही न दें, और यदि आ भी जाए तो साहस के साथ उसका सामना करके उसे हरा सकें |
आज जिस प्रकार से ऑक्सीजन के लिए, दवाओं के लिए मारामारी मची हुई है वह सब भय के ही कारण है और उसका लाभ जमाखोरों और कालाबाज़ारी करने वालों को मिल रहा है | जिन लोगों को अभी कोरोना के लक्षण नहीं भी हैं या कम लक्षण हैं वे भी घबराकर दवाओं और ऑक्सीजन के लिए भागे भागे फिर रहे हैं | अस्पतालों में बेड के लिए भागे फिर रहे हैं | इन लोगों के डर के ही परिणामस्वरूप जमाखोरों और कालाबाज़ारी करने वालों की चाँदी हो रही है | जबकि डॉक्टर्स बार बार कह रहे हैं कि यदि हल्के से लक्षण हैं तो अस्पताल की तरफ मत देखिये – घर में रहकर ही डॉक्टर की बताई दवा समय पर लीजिये, प्राणायाम कीजिए, मास्क और साफ़ सफाई का ध्यान रखिये और सोशल डिस्टेंसिंग का पालन कीजिए – ऐसा करके आप घर में रहकर ही रोगमुक्त हो जाएँगे, और जमाखोरों तथा कालाबाज़ारी करने वालों को भी अवसर नहीं मिलेगा कि वे ऑक्सीजन और दवाओं को इकट्ठा करके मनमाने दामों में बेचकर जनता को लूट सकें | बीमारी की आग पर अपनी रोटियाँ सेंकने वाले राजनेताओं की बन आती है |
जिन लोगों ने इस आपदा के कारण अपने प्रियजनों को खोया है उनका कष्ट समझ में आता है | या जिन लोगों ने कोरोना को झेला है उनकी चिन्ता भी समझ में आती है | लेकिन यदि थोड़ी समझदारी और शान्ति से काम लिया जाए तो और अधिक नुकसान होने से बचाया जा सकता है | अभी दो दिन पहले सभी ने एक समाचार अवश्य देखा पढ़ा होगा कि किसी बुज़ुर्ग व्यक्ति ने एक युवक के लिए अस्पताल का अपना वो बेड छोड़ दिया जो उन्हें उनके परिवार वालों ने बड़ी भाग दौड़ के बाद दिलाया था | उनका कहना था कि “मैं तो अपना जीवन जी चुका, अब इन्हें इनका जीवन जीने देना है…” और घर वापस जाने के दो दिन बाद स्वर्ग सिधार गए | ये तो एक समाचार है, बहुत से ऐसे उदाहरण मानवता के आजकल सुर्ख़ियों में हैं |
रामायण में प्रसंग आता है कि अंगिरा और भृगुवंश के ऋषियों के कोप के कारण हनुमान जी अपनी शक्ति भुला बैठे थे | भगवान श्री राम ने जब उन्हें लंका जाने के लिए कहा तो उन्होंने असमर्थता प्रकट की | तब जामवन्त ने उनके गुणों का बखान उनके समक्ष किया और इस प्रकार उन्हें उनकी शक्ति का आभास कराया और वे “राम काज” करने में समर्थ हो सके | इसलिए व्यक्ति को अपनी सामर्थ्य कभी नहीं भूलनी चाहिए और समय पर उसका सदुपयोग करना चाहिए | और आज ये महामारी हमारे लिए जामवन्त बनकर आई है जो हमें सीख दे रही है कि हमें अपनी सामर्थ्य को नहीं भूलना चाहिए | और इस महामारी के समय सबसे बड़ी शक्ति यही है कि हम सभी सुरक्षा नियमों का पालन करें और यदि हलके लक्षण कोरोना के हैं भी तो घर में रहकर ही डॉक्टर की बताई दवा समय पर लें, अकारण ही घर से बाहर न जाएँ, मास्क लगाएँ, उचित दूरी बनाकर रखें, साफ सफाई का ध्यान रखें, एक दूसरे की सहायता के लिए आगे आएँ, वैक्सीन लें, बीमारी के सम्बन्ध में नकारात्मक तथा डराने वाले समाचारों को देखने सुनने से बचें… और सबसे बड़ी शक्ति ये कि घबराएँ नहीं और संकल्प शक्ति दृढ़ बनाए रहें ताकि कोरोना से लड़ाई में जीत सकें… माना अभी समय कुछ अच्छा नहीं है – लेकिन ये समय भी शीघ्र ही निकल जाएगा – इस प्रकार की सकारात्मकता का भाव बनाए रखें… क्योंकि सकारात्मकता किसी भी विपत्ति को दूर करने में सहायक होती है…
सुख जाता है दुःख को देकर, दुःख जाता है सुख को देकर |
जी हाँ मित्रों, दूसरों को अपने अनुरूप बदलने के स्थान पर हमें पहले स्वयं को बदलने का प्रयास करना चाहिए | अभी पिछले दिनों कुछ मित्रों के मध्य बैठी हुई थी | सब
Katyayani Dr. Purnima Sharma
इधर उधर की बातों में लगे हुए थे | न जाने कहाँ से चर्चा आरम्भ हुई कि एक मित्र बोल उठीं “देखो हमारी शादी जब हुई थी तब हम कितना बदल गए थे | कभी माँ के घर किसी काम को हाथ नहीं लगाया था, यहाँ आकर क्या क्या नहीं किया…”
“अच्छा सुषमा जी एक बात बताइये, क्या आपसे आपके ससुराल वालों ने बदलने की उम्मीद की थी या दबाव डाला था किसी तरह का…?” मैंने पूछा तो उन्हीं मित्र ने कहा “नहीं, पर हमें लगा हमें परिवार की परम्पराओं के अनुसार चलना चाहिए…”
“और क्या भाई साहब – मेरा मतलब तुम्हारे पतिदेव और आंटी अंकल यानी तुम्हारे सास ससुर में किसी प्रकार का कोई परिवर्तन तुम्हें दीख पड़ा… या वे लोग जस के तस ही रहे…?” मज़ाक़ में एक दूसरी मित्र ने पूछा |
“अरे क्या बात करती हो, असल में तो हम सबने ही अपने अपने आप में बहुत से बदलाव किये हैं | और इन्होने तो बहुत ही किये हैं…” ख़ुशी से चिहुँकती हुई सुषमा जी बोलीं “स्पष्ट सी बात है कि दोनों ही अलग अलग पृष्ठभूमि से आए थे, तो दोनों को ही स्वयं को एक दूसरे के अनुरूप – एक दूसरे के परिवेश के अनुकूल ढालना था – और हम दोनों ने ही ऐसा किया | कुछ वे आगे बढे… कुछ मैं… और हम दोनों की देखा देखी घर के दूसरे लोग भी… और हम ही क्या, आप सबके साथ भी तो ऐसा ही हुआ होगा…”
“पर वो गुप्ता आंटी की बहू है न कविता, बहुत ख़राब है… इतना बुरा व्यवहार करती है न आंटी अंकल के साथ कि सच में कभी कभी तो बड़ा दुःख होता है बेचारों की स्थिति पर…” एक अन्य मित्र बोलीं |
“अरे जाने भी दो न यार…” एक दूसरी मित्र बीच में बोलीं “गुप्ता आंटी और अंकल ही कौन अच्छे हैं… बेचारी कविता को नौकरानी बना कर रखा हुआ था… वो भी कब तक सहती…”
घर वापस लौट कर पार्क में हुई इन्हीं सब बातों के विषय में सोचते रहे | बातें सम्भवतः सभी की अपने अपने स्थान पर सही थीं कुछ सीमा तक | लेकिन जो सास ससुर या बहू एक दूसरे के साथ बुरा व्यवहार करते थे वे ऐसा क्यों करते थे ये हमें कुछ समझ नहीं आ रहा था | और भी कुछ लोगों को कहते सुना है कि अमुक परिवार में ससुराल वाले बुरे हैं, या अमुक व्यक्ति की बहू ने सास ससुर को वृद्धाश्रम भिजवा दिया… या उनकी बीमारी में भी बेटा बहू उन्हें देखने तक के लिए नहीं आए, जबकि पास ही रहते हैं… इत्यादि इत्यादि… और ये केवल परिवारों की ही बात नहीं है | समाज के किसी भी क्षेत्र में चले जाइए, परस्पर वैमनस्य… ईर्ष्या… एक दूसरे के साथ दिलों का न मिल पाना… इस प्रकार की समस्याएँ लगभग हर स्थान पर दिखाई दे जाएँगी…
लेकिन फिर उन दूसरी मित्र सुषमा जी की कही बात भी स्मरण हो आई, कि यदि दूसरों को अपना बनाना हो – उन्हें अपने मन के अनुकूल ढालना हो – तो दूसरों को बदलने के स्थान पर हमें स्वयं उनके अनुरूप बदलने का प्रयास करना होगा | हम स्वयं उदाहरण प्रस्तुत करेंगे तो दूसरों पर भी इसका प्रभाव पड़ेगा | कुछ हम आगे बढ़ेंगे और कुछ दूसरे लोग – और इस प्रकार से सभी एक दूसरे के अनुकूल बन जाएँगे |
बात उनकी शत प्रतिशत सही थी | असल में जहाँ कहीं भी दो मित्रों में, परिवार के सदस्यों में, किसी संस्था अथवा कार्यालय में अथवा कहीं भी किसी प्रकार का विवाद होता है तो बहुत से अन्य कारणों के साथ साथ उसका एक बहुत बड़ा कारण यह भी होता है कि हर व्यक्ति दूसरे व्यक्ति से अपेक्षा रखता है कि वह व्यक्ति उसके अनुरूप स्वयं को ढाल लेगा | बस यही सारे विवाद का मूल होता है | हम किसी अन्य से अपेक्षा क्यों रखें कि वह हमारे अनुरूप स्वयं के व्यवहार में परिवर्तन कर लेगा | क्यों नहीं पहले हम स्वयं उसके अनुरूप स्वयं में परिवर्तन करके उसके समक्ष एक उदाहरण प्रस्तुत करें ? जब हम दूसरों को बदलने के स्थान पर स्वयं को बदलना आरम्भ कर देते हैं तब वास्तव में हम अनजाने ही दूसरों के साथ एक प्रेम के बन्धन में बँधते चले जाते हैं | एक ऐसा अटूट बन्धन जहाँ एक दूसरे को बदलने की इच्छा कोई नहीं करता, बल्कि हर कोई एक दूजे के रंग में रंग जाना चाहता है | संसार के सारे सम्बन्ध इसी सिद्धान्त पर तो टिके हुए हैं | और यहीं से आरम्भ होता है अध्यात्म के मार्ग का | जब हम दूसरों को बदलने के स्थान पर स्वयं को बदलना आरम्भ कर देते हैं तब वास्तव में हम अध्यात्म मार्ग का अनुसरण कर रहे होते हैं |
लेकिन जो व्यक्ति स्वयं को समझदार और पूर्णज्ञानी मानकर अहंकारी बन बैठा हो उसे कुछ भी समझाना असम्भव हो जाता है | वह केवल दूसरे में ही परिवर्तन लाना चाहता है – स्वयं अपने आपको पूर्ण बताते हुए | भले बुरे का ज्ञान उसी व्यक्ति को तो दिया जा सकता है जो विनम्र भाव से यह स्वीकार करे कि वह अल्पज्ञानी है और अभी उसमें परिवर्तन की – आगे बढ़ने की – अपार सम्भावनाएँ निहित हैं | इसीलिए ज्ञानीजन कह गए हैं कि व्यक्ति को “पूर्णज्ञानी” होने के मिथ्या अहंकार से बचना चाहिए | वैसे भी अहंकार सम्बन्धों के लिए हानिकारक है | अहंकारी व्यक्ति के कभी भी किसी के साथ प्रगाढ़ सम्बन्ध नहीं बन सकते
अर्थात, व्यक्ति को ऐसे प्रयास करने चाहियें जिनसे उसका उद्धार हो, जिनसे वह प्रगति के पथ पर अग्रसर हो | कभी भी ऐसा कार्य नहीं करना चाहिए जिससे उसका पतन हो, क्योंकि किसी भी व्यक्ति का मित्र और शत्रु कोई अन्य नहीं होता – अपितु वह स्वयं अपना मित्र भी होता है और शत्रु भी | कहीं ऐसा न हो कि दूसरों को बदलने के प्रयास में हम स्वयं अपने ही शत्रु बन बैठें |
अर्थात, व्यक्ति जब क्रोध करता है तो उसका विवेक समाप्त होकर भ्रम की स्थिति उत्पन्न हो जाती है व्यक्ति मूढ़ बन जाता है | उस भ्रम से – मूढ़भाव से बुद्धि व्यग्र होती है, ज्ञानशक्ति का ह्रास हो जाता है और किस कार्य का क्या परिणाम होगा या किस समय किससे कैसे वचन कहें इस सबकी स्मृति नष्ट हो जाती है | स्मृतिनाश होने से तर्कशक्ति नष्ट हो जाती है और बुद्धि या तर्क शक्ति के नष्ट होने से व्यक्ति का विनाश निश्चित है | अतः क्रोध से बचने का सदा प्रयास करना चाहिए – और यह भी एक मार्ग है स्वयं में परिवर्तन लाने का |
साथ ही, व्यक्ति की मानसिक, भावनात्मक और आध्यात्मिक उन्नति के लिए कुछ समय के एकान्त की भी अत्यन्त आवश्यकता होती है | जिन सम्बन्धों में एक दूसरे को ऐसा एकान्त नहीं प्राप्त होता वे सम्बन्ध सन्देहों के झँझावात में फँस इतना बड़ा बोझ बन जाते हैं कि उन्हें सँभालना असम्भव हो जाता है | हम सबको अपने सम्बन्धों को इन्हीं कसौटियों पर परखने का प्रयास करना चाहिए | ऐसा करने से हम दूसरों को बदलने का प्रयास करने के स्थान पर स्वयं में परिवर्तन लाने का प्रयास करेंगे – और जिसका कि परिणाम यह होगा कि किसी में कोई परिवर्तन लाए बिना ही – अपनी अपनी वास्तविकताओं में रहते हुए ही – स्वयं को दूसरों के अनुकूल बना पाने में समर्थ होंगे | और इस प्रकार जब प्रत्येक व्यक्ति हर दूसरे व्यक्ति से अनुकूलन स्थापित करने में सक्षम हो जाएगा तो फिर किसी भी प्रकार के दुर्भाव के लिए वहाँ स्थान ही नहीं रहेगा… यही तो है सम्यग्दर्शन, सम्यक् चरित्र तथा सम्यक् चिन्तन की भावना, जो न केवल समस्त भारतीय दर्शनों का – अपितु हमारे विचार से समस्त विश्व के दर्शनों का सार है…
अस्तु ! हम सब अपने अपने सम्बन्धों में और कार्यक्षेत्रों में भी अपनी अपनी वास्तविकताओं में रहते हुए ही स्वयं को एक दूसरे के अनुकूल बनाते हुए अपने अपने उत्तरदायित्वों का भली भाँति निर्वाह करते रहें केवल यही एक कामना है – अपने लिए भी और अपने मित्रों के लिए भी…
_______________________कात्यायनी डॉ पूर्णिमा शर्मा