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Rang ki Ekadashi

रंग की एकादशी – कुछ भूली बिसरी यादें

अभी 28 और 29 तारीख को रंगों की बौछार होली का मदमस्त कर देने वाला पर्व है… तो आज होली से ही सम्बन्धित अपनी कुछ स्मृतियों को आपके साथ साँझा कर रहे

Katyayani Dr. Purnima Sharma
Katyayani Dr. Purnima Sharma

हैं…

कल फाल्गुन शुक्ल एकादशी है, जिसे आमलकी एकादशी और रंग की एकादशी के नाम से भी जाना जाता है | इस दिन आँवले के वृक्ष की पूजा अर्चना के साथ ही रंगों का पर्व होली अपने यौवन में पहुँचने की तैयारी में होता है | बृज में जहाँ होलाष्टक यानी फाल्गुन शुक्ल अष्टमी से होली के उत्सव का आरम्भ हो जाता है वहीं काशी विश्वनाथ मन्दिर में फाल्गुन शुक्ल एकादशी से इस उत्सव का आरम्भ माना जाता है | होलाष्टक के विषय में जहाँ मान्यता है कि फाल्गुन शुक्ल अष्टमी को भगवान कृष्ण प्रथम बार राधा जी के परिवार से मिलने बरसाने गए थे तो वहाँ लड्डू बाँटे गए थे, वहीं काशी विश्वनाथ में रंग की एकादशी के विषय में मान्यता है कि इसी दिन भगवान शिव ने माता पार्वती को अपने घर लिवा लाने के लिए पर्वतराज हिमालय की नगरी की ओर प्रस्थान किया था |

होलाष्टक के विषय में बहुत सी कथाएँ और मान्यताएँ जन साधारण के मध्य प्रचलित हैं, किन्तु मान्यताएँ कुछ भी हों, कथाएँ कितनी भी हों, सत्य बस यही है कि होली का उत्साहपूर्ण रंगपर्व ऐसे समय आरम्भ होता है जब सर्दी धीरे धीरे पीछे खिसक रही होती है और गर्मी चुपके से अपने पैर आगे बढ़ाने की ताक में होती है | साथ में वसन्त की खुमारी हर किसी के सर चढ़ी होती है | फिर भला हर कोई मस्ती में भर झूम क्यों न उठेगा | कोई विरह वियोगी ही होगा जो ऐसे मदमस्त कर देने वाले मौसम में भी एक कोने में सूना सूखा और चुपचाप खड़ा रह जाएगा |

अपने पैतृक नगर नजीबाबाद की होली अक्सर याद आ जाती है | हमारे शहर में मालिनी नदी के पार छोटी सी काछियों की बस्ती थी जिसे कछियाना भी कहते थे | ये लोग मूल रूप से सब्ज़ियाँ उगाने का कार्य करते हैं | रंगपंचमी यानी फाल्गुन शुक्ल पंचमी से रात को भोजन आदि से निवृत्त होकर बस्ती के सारे स्त्री पुरुष चौपाल में इकट्ठा हो जाते थे | रात को सारंगी और बाँसुरी से काफी पीलू के सुर उभरने शुरू होते, धीरे धीरे खड़ताल खड़कनी शुरू होती, चिमटे चिमटने शुरू होते, मँजीरे झनकने की आवाज़ें कानों में आतीं और साथ में धुनुकनी शुरू होतीं ढोलकें धमार, चौताल, ध्रुपद या कहरवा की लय पर – फिर धीरे धीरे कंठस्वर उनमें मिलते जाते और आधी रात के भी बाद तक काफी, बिरहा, चैती, फाग, धमार, ध्रुपद, रसिया और उलटबांसियों के साथ ही स्वांग का जो दौर चलता तो अपने अपने घरों में बिस्तरों में दुबके लोग भी अपना सुर मिला देते | हमारे पिताजी को अक्सर वे लोग साथ में ले जाया करते थे और पिताजी की लाडली होने के कारण उनके साथ किसी भी कार्यक्रम में जाने का अवसर हम हाथ से नहीं जाने देते थे | तो जब हम बाप बेटी घर वापस लौटते थे तो वही सब गुनगुनाते और उसकी विषय में चर्चा करते कब में घर की सीढ़ियाँ चढ़ जाते थे हमें कुछ होश ही नहीं रहता था | और ऐसा नहीं था कि उस चौपाल में गाने बजाने वाले लोग कलाकार होते थे | सीधे सादे ग्रामीण किसान होते थे, पर होली की मस्ती जो कुछ उनसे प्रदर्शन करा देती थी वह लाजवाब होता था और इस तरह फ़जां में घुल मिल जाता था कि रात भर ठीक से नींद पूरी न होने पर भी किसी को कोई शिकायत नहीं होती थी, उल्टे फिर से उसी रंग और रसभरी रात का इंतज़ार होता था | तो ऐसा असर होता है इस पर्व में |

और रंग की एकादशी से तो सारे स्कूल कालेजों और शायद ऑफिसेज़ की भी होली की छुट्टियाँ ही हो जाया करती थीं | फिर तो हर रोज़ बस होली का हुडदंग मचा करता था | रंग की एकादशी को हर कोई स्कूल कॉलेज ज़रूर जाता था – अपने दोस्तों और टीचर्स के साथ होली खेले बिना भला कैसा रहा जा सकता था ? और टीचर्स भी बड़े जोश के साथ अपने स्टूडेंट्स के साथ उस दिन होली खेलते थे |

घरों में होली के पकवान बनने शुरू हो जाया करते थे | होलिका दहन के स्थल पर जो अष्टमी के दिन होलिका और प्रहलाद के प्रतीकस्वरूप दो दण्ड स्थापित किये गए थे अब उनके चारों ओर वृक्षों से गिरे हुए सूखे पत्तों, टहनियों, लकड़ियों आदि के ढेर तथा बुरकल्लों की मालाओं आदि को इकठ्ठा किया जाने का कार्यक्रम शुरू हो जाता था | ध्यान ये रखा जाता था कि अनावश्यक रूप से किसी पेड़ को न काटा जाए | हाँ शरारत के लिए किसी दोस्त के घर का मूढा कुर्सी या चारपाई या किसी के घर का दरवाज़ा होली की भेंट चढ़ाने में किसी को कोई आपत्ति नहीं होती थी | और ये कार्य लड़कियाँ नहीं करती थीं | विशेष रूप से हर लड़का हर दूसरे लड़के के घर के दरवाज़े और फर्नीचर पर अपना मालिकाना हक समझता था और होलिका माता को अर्पण कर देना अपना परम कर्त्तव्य तथा पुण्य कर्म समझता था | और इसी गहमागहमी में आ जाता था होलिकादहन का पावन मुहूर्त |

गन्ने के किनारों पर जौ की बालियाँ लपेट कर घर के पुरुष यज्ञ की सामग्री के द्वारा प्रज्वलित होलिका की परिक्रमा करते हुए आहुति देते थे और होलिका की अग्नि में भुने हुए इस गन्ने को प्रसादस्वरूप वितरित करते थे | अगली सुबह होलिका की अग्नि से हर घर का चूल्हा जलता था | रात भर होलिका की अग्नि पर टेसू के फूलों का रंग पकता था जो सुबह सुबह कुछ विशिष्ट परिवारों में भेजा जाता था और बाक़ी बचा रंग बड़े बड़े ड्रमों में भरकर होली के जुलूस में ले जाया जाता था और हर आते जाते को उस रंग से सराबोर किया जाता था | गुनगुना मन को लुभाने वाली ख़ुशबू वाला टेसू के फूलों का रंग जब घर में आता तो पूरा घर ही एक नशीली सी ख़ुशबू से महक उठता |

दोपहर को इधर सब नहा धोकर तैयार होते और उधर होली की ही अग्नि पर बना देसी घी का सूजी का गरमा गरमा हलवा प्रसाद के रूप में हर घर में पहुँचा दिया जाता | हलवे का प्रसाद ग्रहण करके और भोजनादि से निवृत्त होकर नए वस्त्र पहन कर शाम को सब एक दूसरे के घर होली मिलने जाते | अब त्यौहार आता अपने समापन की ओर | नजीबाबाद जैसे सांस्कृतिक विरासत के धनी शहर में भला कोई पर्व संगीत और साहित्य संगोष्ठी से अछूता रहा जाए ऐसा कैसे सम्भव था ? तो रात को संगीत और कवि गोष्ठियों का आयोजन होता जो अगली सुबह छह सात बजे जाकर सम्पन्न होता | रात भर चाय, गुझिया, समोसे, दही भल्ले पपड़ी चाट के दौर भी चलते रहते | यानी रंग की पञ्चमी से जो होली के गान का आरम्भ होता उसका उत्साह बढ़ते बढ़ते होलाष्टक तक अपने शैशव को पार करता हुआ रंग की एकादशी को किशोरावस्था को प्राप्त होकर होली आते आते पूर्ण युवा हो जाता था |

आज जब हर तरफ एक अजीब सी अफरातफरी का माहौल बना हुआ है, एक दूसरे पर जैसे किसी को भरोसा ही नहीं रहा गया है, ऐसे में याद आते हैं वे दिन… याद आते हैं वे लोग… उन्हीं दिनों और उन्हीं लोगों का स्मरण करते हुए, सभी को कल रंग की एकादशी के साथ ही अग्रिम रूप से होली की रंग भरी… उमंग भरी… हार्दिक शुभकामनाएँ… इन पंक्तियों के साथ…

होली है, हुडदंग मचा लो, सारे बन्धन तोड़ दो |

और नियम संयम की सारी आज दीवारें तोड़ दो ||

लाल पलाश है फूल रहा और आग लगी हर कोने में

कैसा नखरा, किसका नखरा, आज सभी को रंग डालो ||

माना गोरी सर से पल्ला खिसकाके देगी गाली

तीखी धार कटारी की है, मत समझो भोली भाली |

पर टेसू के रंग में इसको सराबोर तुम आज करो

शहद पगी गाली के बदले मुख गुलाल से लाल करो ||

पूरा बरस दबा रक्खी थी साध, उसे पूरी कर लो

जी भरके गाली दो, मन की हर कालिख़ बाहर फेंको ||

नहीं कोई है रीत, नहीं है कोई बन्दिश होली में

मन को जिसमें ख़ुशी मिले, बस ऐसी तुम मस्ती भर लो ||

जो रूठा हो, आगे बढ़के उसको गले लगा लो आज

बाँहों में भरके आँखों से मन की तुम कह डालो आज |

शरम हया की बात करो मत, बन्धन ढीले आज करो

नाचो गाओ धूम मचाओ, पिचकारी में रंग भर लो ||

गोरी चाहे प्यार के रंग में रंगना, उसका मान रखो

कान्हा चाहे निज बाँहों में भरना, उसका दिल रख लो |

डालो ऐसा रंग, न छूटे बार बार जो धुलकर भी

तन मन पुलकित हो, कुछ ऐसा प्रेम प्यार का रंग भर दो ||

________________________कात्यायनी डॉ पूर्णिमा शर्मा 

 

 

bookmark_borderEight days of Holashtak

Eight days of Holashtak 

होलाष्टक के आठ दिन 

कल यानी रविवार 21 मार्च को प्रातः सात बजकर सत्ताईस मिनट के लगभग विष्टि करण (भद्रा) और आयुष्मान योग में फाल्गुन शुक्ल अष्टमी तिथि का आरम्भ हो रहा है |

Dr. Purnima Sharma
Dr. Purnima Sharma

इसी समय से होलाष्टक आरम्भ हो जाएँगे जो रविवार 28 मार्च को होलिका दहन के साथ ही समाप्त हो जाएँगे | 28 मार्च को उदयव्यापिनी पूर्णिमा सूर्योदय से पूर्व तीन बजकर सत्ताईस मिनट आरम्भ होकर अर्द्धरात्रि में बारह बजकर सत्रह मिनट तक रहेगी | इसी मध्य गोधूलि वेला में सायं छह बजकर सैंतीस मिनट से रात्रि आठ बजकर छप्पन मिनट तक होलिका दहन का मुहूर्त है, और उसके बाद रंगों की बरसात के साथ ही फाल्गुन कृष्ण प्रतिपदा से होलाष्टक समाप्त हो जाएँगे |

फाल्गुन मास की शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि से आरम्भ होकर पूर्णिमा तक की आठ दिनों की अवधि होलाष्टक के नाम से जानी जाती है और चैत्र कृष्ण प्रतिपदा को होलाष्टक समाप्त हो जाते हैं | होलाष्टक आरम्भ होने के साथ ही होली के पर्व का भी आरम्भ हो जाता है | इसे “होलाष्टक दोष” की संज्ञा भी दी जाती है और कुछ स्थानों पर इस अवधि में बहुत से शुभ कार्यों की मनाही होती है | विद्वान् पण्डितों की मान्यता है कि इस अवधि में विवाह संस्कार, भवन निर्माण आदि नहीं करना चाहिए न ही कोई नया कार्य इस अवधि में आरम्भ करना चाहिए | ऐसा करने से अनेक प्रकार के कष्ट, क्लेश, विवाह सम्बन्ध विच्छेद, रोग आदि अनेक प्रकार की अशुभ बातों की सम्भावना बढ़ जाती है | किन्तु जन्म और मृत्यु के बाद किये जाने वाले संस्कारों के करने पर प्रतिबन्ध नहीं होता |

फाल्गुन कृष्ण अष्टमी को होलिका दहन के स्थान को गंगाजल से पवित्र करके होलिका दहन के लिए दो दण्ड स्थापित किये जाते हैं, जिन्हें होलिका और प्रह्लाद का प्रतीक माना जाता है | फिर उनके मध्य में उपले (गोबर के कंडे), घास फूस और लकड़ी आदि का ढेर लगा दिया जाता है | इसके बाद होलिका दहन तक हर दिन इस ढेर में वृक्षों से गिरी हुई लकड़ियाँ और घास फूस आदि डालते रहते हैं और अन्त में होलिका दहन के दिन इसमें अग्नि प्रज्वलित की जाती है | ऐसा करने का कारण सम्भवतः यह रहा होगा कि होलिका दहन के अवसर तक वृक्षों से गिरी हुई लकड़ियों और घास फूस का इतना बड़ा ढेर इकट्ठा हो जाए कि होलिका दहन के लिए वृक्षों की कटाई न करनी पड़े |

Holika Dahan
Holika Dahan

पौराणिक मान्यता ऐसी भी है कि तारकासुर नामक असुर ने जब देवताओं पर अत्याचार बढ़ा दिए तब उसके वध का एक ही उपाय ब्रह्मा जी ने बताया, और वो ये था कि भगवान शिव और पार्वती की सन्तान ही उसका वध करने में समर्थ हो सकती है | तब नारद जी के कहने पर पार्वती ने शिव को प्राप्त करने के लिए घोर तप का आरम्भ कर दिया | किन्तु शिव तो दक्ष के यज्ञ में सती के आत्मदाह के पश्चात ध्यान में लीन हो गए थे | पार्वती से उनकी भेंट कराने के लिए उनका उस ध्यान की अवस्था से बाहर आना आवश्यक था | समस्या यह थी कि जो कोई भी उनकी साधना भंग करने का प्रयास करता वही उनके कोप का भागी बनता | तब कामदेव ने अपना बाण छोड़कर भोले शंकर का ध्यान भंग करने का दुस्साहस किया | कामदेव के इस अपराध का परिणाम वही हुआ जिसकी कल्पना सभी देवों ने की थी – भगवान शंकर ने अपने क्रोध की ज्वाला में कामदेव को भस्म कर दिया | अन्त में कामदेव की पत्नी रति के तप से प्रसन्न होकर शिव ने कामदेव को पुनर्जीवन देने का आश्वासन दिया | माना जाता है कि फाल्गुन शुक्ल अष्टमी को ही भगवान शिव ने कामदेव को भस्म किया था और बाद में रति ने आठ दिनों तक उनकी प्रार्थना की थी | इसी के प्रतीक स्वरूप होलाष्टक के दिनों में कोई शुभ कार्य करने की मनाही होती है |

वैसे व्यावहारिक रूप से पंजाब और उत्तर प्रदेश के कुछ भागों में होलाष्टक का विचार अधिक किया जाता है, अन्य अंचलों में होलाष्टक का कोई दोष प्रायः नहीं माना जाता |

अतः, मान्यताएँ चाहें जो भी हों, इतना निश्चित है कि होलाष्टक आरम्भ होते ही मौसम में भी परिवर्तन आना आरम्भ हो जाता है | सर्दियाँ जाने लगती हैं और मौसम में हल्की सी गर्माहट आ जाती है जो बड़ी सुखकर प्रतीत होती है | प्रकृति के कण कण में वसन्त की छटा तो व्याप्त होती ही है | कोई विरक्त ही होगा जो ऐसे सुहाने मदमस्त कर देने वाले मौसम में चारों ओर से पड़ रही रंगों की बौछारों को भूलकर ब्याह शादी, भवन निर्माण या ऐसी ही अन्य सांसारिक बातों के विषय में विचार करेगा | जनसाधारण का रसिक मन तो ऐसे में सारे काम काज भुलाकर वसन्त और फाग की मस्ती में झूम ही उठेगा…

इन सभी मान्यताओं का कोई वैदिक, ज्योतिषीय अथवा आध्यात्मिक महत्त्व नहीं है, केवल धार्मिक आस्थाएँ और लौकिक मान्यताएँ ही इस सबका आधार हैं | तो क्यों न होलाष्टक की इन आठ दिनों की अवधि में स्वयं को सभी प्रकार के सामाजिक रीति रिवाज़ों के बन्धन से मुक्त करके इस अवधि को वसन्त और फाग के हर्ष और उल्लास के साथ व्यतीत किया जाए…

रंगों के पर्व की अभी से रंग और उल्लास से भरी हार्दिक शुभकामनाएँ…

_____________कात्यायनी डॉ पूर्णिमा शर्मा

 

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Mahashivaraatri Parva

महाशिवरात्रि पर्व

ॐ त्रयम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् |

Dr. Purnima Sharma
Dr. Purnima Sharma

उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्तीयमामृतात् ||

आज समस्त हिन्दू समाज भगवान शिव की पूजा अर्चना का पर्व महाशिवरात्रि का पावन पर्व मना रहा है | प्रतिवर्ष फाल्गुन मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को महाशिवरात्रि के व्रत का पालन किया जाता है, जिसे शिव पार्वती के विवाह का अवसर माना जाता है – अर्थात मंगल के साथ शक्ति का मिलन | कुछ पौराणिक मान्यताएँ इस प्रकार की भी हैं कि इसी दिन महादेव के विशालकाय स्वरूप अग्निलिंग से सृष्टि का आरम्भ हुआ था | जो भी मान्यताएँ हों, महाशिवरात्रि का पर्व समस्त हिन्दू समाज में बड़ी धूम धाम से मनाया जाता है | इसी दिन ऋषि बोधोत्सव भी है, जिस दिन आर्यसमाज के प्रवर्तक स्वामी दयानन्द को सच्चे शिवभक्त का ज्ञान प्राप्त हुआ था और उनके हृदय से उदगार फूटे थे कि सच्चा शिव किसी मन्दिर या स्थान विशेष में विराजमान मूर्ति में निवास नहीं करता, अपितु वह इस सृष्टि के प्राणिमात्र में विराजमान है, और इसलिए प्राणिमात्र की सेवा ही सच्ची ईश्वरभक्ति है |

आज दिन में दो बजकर 41 मिनट के लगभग विष्टि (भद्रा) करण और सिद्ध योग में चतुर्दशी तिथि का आगमन होगा जो कल दिन में लगभग तीन बजे तक रहेगी और उसके बाद अमावस्या तिथि आरम्भ हो जाएगी | अतः निशीथ काल की पूजा और अभिषेक इसी दिन मध्य रात्रि में बारह बजकर छह मिनट से लेकर बारह बजकर पचपन मिनट तक किया जाएगा | जिन लोगों को रात्रि में अभिषेक नहीं करना है और दिन में ही व्रत रखकर रात्रि में उसका पारायण करना चाहते हैं वे लोग भी इसी दिन व्रत रख सकते हैं | लेकिन जो लोग दिन में कुछ ही देर के लिए व्रत रखना चाहते हैं उन्हें कल दिन में व्रत रखकर अपराह्न तीन बजे तक व्रत का पारायण कर देना चाहिए |

जो लोग पूर्णतः वैदिक विधि विधान के साथ भगवान शंकर के चार अभिषेक करते हैं तो उनके लिए प्रथम प्रहर के अभिषेक का समय है आज सिंह लग्न में सायं 6:27 से आरम्भ होकर तुला लग्न में रात्रि 9:29 तक, द्वितीय प्रहर के अभिषेक का समय तुला लग्न में रात्रि 9:29 से आरम्भ होकर वृश्चिक लग्न में अर्द्ध रात्रि 12:31 तक, तृतीय प्रहर के अभिषेक का समय वृश्चिक लग्न में अर्द्ध रात्रि 12:31 से आरम्भ होकर कल धनु लग्न में सूर्योदय से पूर्व 3:32 तक और चतुर्थ प्रहर के अभिषेक का समय कल सूर्योदय से पूर्व धनु लग्न में 3:32 से आरम्भ होकर कुम्भ लग्न में प्रातः 6:34 तक रहेगा |

भगवान शिव की पूजा अर्चना जहाँ होगी वहाँ आनन्द और आशीर्वाद की वर्षा तो निश्चित रूप से होगी ही | शिव को तो कहा ही “औघड़दानी” जाता है | शिवरात्रि के पर्व के साथ बहुत सी कथाएँ भी जुड़ी हुई हैं और उन सभी कथाओं में कुछ न कुछ प्रेरणादायक उपदेश भी निहित हैं | लेकिन हमारे विचार से :

जन जन को शिव का रूप और कण कण को शंकर समझेंगे |

तो “शं करोतीति शंकरः” खुद ही सार्थक हो जाएगा ||

अर्थात – जो शं यानी शान्ति प्रदान करे वह शंकर – किन्तु शंकर भी तभी जन जन को शान्ति और कल्याण प्रदान करेंगे जब हम प्रकृति के कण कण में – प्रत्येक जन मानस में – शंकर का अनुभव करेंगे और साथ ही प्रकृति को तथा प्रकृति के मध्य निवास कर रहे किसी भी प्राणी को किसी प्रकार की हानि न पहुँचाने का संकल्प लेंगे – तभी वास्तव में शिवाराधन सार्थक माना जाएगा और तभी हमें अनुभव होगा कि हमारा रोम रोम प्रसन्नता से प्रफुल्लित होकर ताण्डव कर रहा है जो कि समस्त प्रकार की दुर्भावनाओं से मोक्ष तथा कल्याण का – शान्ति का प्रतीक होगा | साथ ही एक और महत्त्वपूर्ण तथ्य, शिवरात्रि अमावस्या के साथ आती है – यानी चन्द्रमा की नव प्रस्फुटित शीतल किरणों को आगे करके आती है – जो एक प्रकार से अन्धकार अर्थात सभी प्रकार के अज्ञान और कुरीतियों तथा दुर्भावनाओं पर प्रकाश अर्थात ज्ञान और सद्भावनाओं की विजय का भी प्रतीक है |

भगवान् शिव की महिमा का वर्णन तथा उनकी प्रार्थना के लिए बहुत सारे स्तोत्र और मन्त्र हमारे ऋषि मुनियों ने उच्चरित किये हैं – जिनमें “शिवाष्टक” भी अनेक प्रकार के हैं, जिनके भावार्थ भी प्रायः सामान ही हैं | उन्हीं में से आज प्रस्तुत है एक “शिवाष्टक”…

प्रभुमीशमनीशमशेषगुणं गुणहीनमहीश गरलाभरणम् |

रण निर्जित दुर्जय दैत्यपुरं प्रणमामि शिवं शिवकल्पतरुम् ||1||

गिरिराज सुतान्वित वामतनुं तनुनिन्दितराजित कोटिविधुम् |

विधिविष्णुशिरोधृत पादयुगं प्रणमामि शिवं शिवकल्पतरुम् ||2||

शशलान्च्छितरंजित सन्मुकुटं कटिलम्बितसुन्दर कृत्तिपटम् |

सुरशैवलिनी कृतपूतजटं प्रणमामि शिवं शिवकल्पतरुम् ||3||

नयनत्रयभूषित चारुमुखं मुखपद्मपराजित कोटिविधुम् |

विधुखण्डविमण्डित भालतटं प्रणमामि शिवं शिवकल्पतरुम् ||4||

वृषराज निकेतनमादि गुरुं गरलाशनमाजिविषाणधरम् |

प्रमथाधिपसेवक रन्जनकं प्रणमामि शिवं शिवकल्पतरुम् ||5||

मकरध्वजमत्तमतंग हरं करिचर्मगनागविबोधकरम् |

वरमार्गणशूलविषाणधरं प्रणमामि शिवं शिवकल्पतरुम् ||6||

जगदुद्भवपालननाशकरं त्रिदिवेशशिरोमणि धृष्टपदम् |

प्रियमानवसाधुजनैकगतिं प्रणमामि शिवं शिवकल्पतरुम् ||7||

अनाथं सुदीनं विभो विश्वनाथं पुनर्जन्मदु:खात् परित्राहि शम्भो |

भजतोखिलदुःख समूहहरं प्रणमामि शिवं शिवकल्पतरुम् ||8||

भाव है कि देवाधिदेव, समस्त गुणों से परे, विषपान करने वाले, दैत्यों का नाश करने वाले कल्पतरु के सामान सबकी मनोकामना पूर्ण करने वाले, जिनके वाम भाग में शैलपुत्री विराजमान हैं, ब्रह्मा और विष्णु भी जिनके चरणवन्दना करते हैं, जिनके मस्तक पर चन्द्रमा का मुकुट सुशोभित है, जटाओं में गंगा को धारण करने वाले, त्रिनेत्र, वृषभारूढ़, कामदेव का मर्दन करने वाले, समस्त चराचर का उद्भव, पालन और संहार करने वाले, पुनर्जन्म के कष्ट से मुक्ति प्रदान करने वाले, दीनों और अनाथों के नाथ विश्वनाथ शिव की हम वन्दना करते हैं… भगवान् शिव सबकी मनोकामनाओं को पूर्ण करें…

अस्तु, हम सभी प्रकृति के कण कण में शंकर का वास मानकर सभी के प्रति सद्भावना रखें तथा समाज में व्याप्त अनेक प्रकार की कुरीतियों पर विजय प्राप्त करने का प्रयास करें… इसी कामना के साथ सभी को महाशिवरात्रि पर्व की अनेकशः हार्दिक शुभकामनाएँ… भगवान शंकर सभी के जीवन में शान्ति और कल्याण की पावन गंगा प्रवाहित करें…

_________________कात्यायनी डॉ पूर्णिमा शर्मा

 

bookmark_borderअकेलापन और एकान्त – An article by Dr. Purnima Sharma

अकेलापन और एकान्त – An article by Dr. Purnima Sharma  

हम सभी जानते हैं कि सारा विश्व 2019 के अन्तिम माह से कोरोना से जूझ रहा है – एक ऐसी महामारी जिसने समूचे विश्व को इस तरह जकड़ लिया कि हर कोई अपने घर में

Dr. Purnima Sharma
Dr. Purnima Sharma

ही बन्द होकर बैठने को विवश हो गया | इस सबसे ये लाभ तो हुआ कि परिवार के साथ मिल बैठने के लिए अवकाश प्राप्त हुआ – क्योंकि काम की भाग दौड़ के चलते इसके लिए समय नहीं निकाल पाते थे, अपने घरों के काम जिनके लिए जहाँ हम सभी घर में काम करने के लिए आने वाले सहायकों पर निर्भर हो गए थे वहीं लॉकडाउन के कारण अपने घरों के काम परिवार के सदस्यों ने मिल जुलकर करने आरम्भ कर दिए, आए दिन जो बाहर जाकर डिनर और लंच करने का या बाहर से घर पर भोजन मँगाकर खाने का स्वभाव हम सभी का हो गया था – अब घर में पके भोजन का महत्त्व सभी को समझ आने लगा, सड़कों पर वाहनों की कमी के कारण प्रदूषण का अभाव हुआ और सारी प्रकृति फिर से एक बार युवा हो उठी, हमें सभी को अपनी अपनी उन रुचियों में कुशलता प्राप्त करने का अवसर प्राप्त हुआ जो हम सामान्य तौर पर कार्य की अधिकता के कारण नहीं कर पाते थे | और एक बात जो बहुत अच्छी हुई वो यह कि हमें स्वयं को समझने के लिए – आत्मानुशीलन और आत्म विश्लेषण के लिए समय प्राप्त हो गया – विशेष रूप से अध्यात्म के मार्ग पर अग्रसर व्यक्तियों के लिए यह एक बहुत सकारात्मक अनुभूति रही | ऐसा नहीं था कि हम एकान्त में थे, परिवार के बीच थे – लेकिन समय इतना अधिक था कि परिवार के बीच बैठकर भी कुछ समय अपने लिए निकालना सरल हो रहा था |

हम प्रायः अकेलेपन और एकान्त को समझने में भूल कर बैठते हैं और सोचने लगते हैं कि जो व्यक्ति अकेला रहता है वही वास्तव में एकान्तवासी होता है और वही एकाग्रचित्त होकर अपने लक्ष्य पर ध्यान केन्द्रित करके लक्ष्य प्राप्त कर सकता है | अथवा एकान्त में बैठकर साधना करके मोक्ष को प्राप्त हो सकता है | जबकि वास्तविकता यह है कि अकेलापन और एकान्त दोनों एक दूसरे से पृथक हैं |

अकेलापन ख़ालीपन का अहसास लिए हुए एक ऐसी भावना है जिसके चलते व्यक्ति का स्वयं पर से विश्वास उठ सकता है, उसके भीतर प्रवाहित होती रहने वाली आनन्द और प्रेम की निर्मल सरिता शुष्क हो सकती है, रुचियाँ समाप्त हो सकती हैं और यहाँ तक कि व्यक्ति घोर निराशा और अवसाद में डूब सकता है | ऐसा इसलिए कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है |

हालाँकि यह भी सच है कि अपने दैनिक क्रियाकलापों से थक कर कुछ समय के लिए यदि अकेला रहकर एकान्त के क्षणों का अनुभव किया जाए तो व्यक्ति में नवजीवन का संचार होकर फिर से कार्य के लिए उत्साह उत्पन्न हो जाता है – क्योंकि तब वह पूर्ण रूप से अपने साथ होता है | लेकिन आत्मोन्नति के लिए किसी एकान्त की आवश्यकता नहीं होती | सबके बीच बैठकर भी व्यक्ति अन्तर्मुखी हो सकता है और आत्मोन्नति के लिय एकान्त के क्षणों का अनुभव कर सकता है |

हम सभी एकान्त का अनुभव करें, अकेलेपन का नहीं, क्योंकि अकेलापन एक पीड़ादायक अहसास है – जबकि एकान्त में हम स्वयं के प्रति जागरूक होकर स्वयं के सान्निध्य का सुख अनुभव करते हैं…

__________________डॉ पूर्णिमा शर्मा

bookmark_borderउम्र या सिर्फ नंबर

उम्र या सिर्फ नंबर

पूजा भरद्वाज
पूजा भरद्वाज

बच्चा जब जन्म लेता है तो वह एक मासूम सा प्यारा सा बच्चा होता है | हर परेशानियों से दूर जिम्मेदारियों से मुक्त बचपन जब बच्चा बड़ा होता है, स्कूल जाता है, खेलता है और लंच तो ब्रेक से पहले ही खत्म हो जाता है और, उनका दिल साफ, उड़ने के लिए तैयार, आसमान को छूने को तैयार, तब तक यह सिर्फ नंबर ही होते हैं | बड़े होते हैं | नए दोस्त, पढ़ाई का बोझ, वह केवल नंबर होते हैं इस तरह बचपन खुशनुमा मस्ती भरा, थोड़ा हैवी और बहुत सारी यादों के साथ बचपन का नंबर उम्र में बदलना शुरू होता है |

तब शुरू होती है एक उम्र कई जिम्मेदारियों परेशानियों के साथ अपने प्यार को पाने, के लिए भी एक अच्छे कॉलेज में एडमिशन, एक अच्छी नौकरी की | और इस भाग दौड़ में हम जीते हैं अपनी सिर्फ एक उम्र, जिसमें होते हैं कई सवाल | जैसे इतनी उम्र में एक घर, उतनी उम्र में शादी और एक मुकाम इस बीच में रह जाती है | सिर्फ केवल एक उम्र | कुछ लोग तो सिर्फ एक उम्र ही जीते हैं | ना उनकी कोई ख्वाहिश होती है ना दिल में उमंग | उन्हें याद ही नहीं रहता कि वह आखिरी बार दिल खोलकर कब हंसे थे | कब आखिरी बार बारिश में भीगे थे | कई लोग तो इतने बोर होते हैं जैसे वह अपनी जिंदगी बोझ की तरह जी रहे हैं | वे ना उम्र जीते हैं और ना ही नंबर,…….

कुछ लोगों की किस्मत साथ देती है फिर भी पैसे कमाने की होड़ में लग जाते हैं और वह इस होड़ में इतनी दूर आ जाते हैं कि उन्हें पता ही नहीं चलता कि कितने सालों से उनकी साथी कई तरह की दवाइयां बन चुकी है | कई बार तो इतनी देर हो जाती है और उन्हें पता चलता है कि उन्हें कोई गंभीर बीमारी है | फिर उनकी आखिरी समय तक रह जाता है हॉस्पिटल का एक बेड चार बाय चार का कमरा, एक गर्म पानी की बोतल, और बिना स्वाद वाला खाना, और कई सवाल – क्यों मैंने एक पिंजरे में बंद पक्षी की तरह जिंदगी जी – क्यों मैंने एक उम्र जी – क्यों मैं उसे नंबर में नहीं बदल सका…

इसलिए उठो… थोड़ा सोचो… ज्यादा देर हो जाए उससे पहले स्वयं को पहचानो… तुम्हें क्या पसंद है… और शुरूआत करो एक सफर की उम्र को नंबर में बदलने की…

सुबह उठकर 5 मिनट पसंदीदा गाने पर अपने पांव को थिरकाओ | चाहे उम्र 90 की क्यों ना हो फिर भी जिंदादिली से अपनी इच्छाओं को पूरा करो और एक बार अपना बचपन फिर जी लो | हर वह काम करो जो कहीं किसी दिल में कोने में दब गया था | एक बार फिर बचपन जी लो बच्चों के साथ बच्चे बनकर दिल खोलकर हंसो और 90 की उम्र में भी एक गोल्ड मेडल जीतो | हर वह काम करो कि मरने का अफसोस ना रहे और ना कोई सवाल, हो तो एक चेहरे पर बड़ी मुस्कान… एक खुशी… और मन की शांति कि मैंने केवल उम्र नहीं जी… मैंने अपनी उम्र को रोक दिया है सिर्फ नंबर में… और हर पल की एक सेल्फी लो… जब उसे देखो तो मन खुश हो जाए और चेहरे पर आ जाए बड़ी मुस्कान कि हमने अपनी उम्र को नंबर मैं रोक दिया,………,???

         पूजा भारद्वाज

(पूजा भारद्वाज ने दिल्ली के हंसराम कॉलेज से आर्ट्स में ग्रेजुएशन किया है | वर्तमान में ये अपने पति के साथ मिलकर financial consultancy services देती हैं | इस सबके साथ ही इन्हें पेंटिंग का तथा कुकिंग का शौक़ है | साथ में लिखने का भी शौक़ है | ये WOW India की इन्द्रप्रस्थ विस्तार ब्रांच की सदस्य हैं…) डॉ पूर्णिमा शर्मा…

bookmark_borderसूर्य ग्रहण

सूर्य ग्रहण

रविवार आषाढ़ कृष्ण अमावस्या को प्रातः दस बजकर बीस मिनट के लगभग सूर्य ग्रहण का आरम्भ होगा जो भारत के कुछ भागों में कंकणाकृति अर्थात वलयाकार दिखाई

Dr. Purnima Sharma
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देगा तथा कुछ भागों में आंशिक रूप से दिखाई देगा और दिन में 1:49 के लगभग समाप्त हो जाएगा | बारह बजकर दो मिनट के लगभग ग्रहण का मध्यकाल होगा | ग्रहण की कुल अवधि 3 घंटे 28 मिनट 36 सेकेंड्स की है | ग्रहण का सूतक शनिवार 20 जून को रात्रि नौ बजकर बावन मिनट से आरम्भ होगा | किन्तु जो लोग बीमार हैं उनके लिए, बच्चों के लिए तथा गर्भवती महिलाओं के लिए 21 जून की प्रातः पाँच बजकर चौबीस मिनट यानी सूर्योदय काल से सूतक का आरम्भ माना जाएगा | यह ग्रहण मिथुन राशि पर है जहाँ सूर्य, चन्द्र और राहु के साथ बुध भी गोचर कर रहा है | सूर्य, चन्द्र और राहु मृगशिर नक्षत्र में हैं | साथ ही इस दिन से भगवान भास्कर दक्षिण दिशा की ओर प्रस्थान आरम्भ कर देते हैं और दिन की अवधि धीरे धीरे कम होनी आरम्भ हो जाती है, इसीलिए इस दिन को ग्रीष्मकालीन सबसे बड़ा दिन भी माना जाता है | किन्तु ज्योतिषीय गणनाओं के अनुसार कर्क संक्रान्ति को सूर्यदेव का दक्षिण दिशा में प्रस्थान आरम्भ होता है जिसे निरयण दक्षिणायन कहा जाता है – जो 16 जुलाई को होगी |

ग्रहण के विषय में हम पूर्व में भी बहुत कुछ लिख चुके हैं | अतः पौराणिक कथाओं के विस्तार में नहीं जाएँगे | हमारे ज्योतिषियों की मान्यता है कि ग्रहण की अवधि में उपवास रखना चाहिए, बालों में कंघी आदि नहीं करनी चाहिए, गर्भवती महिलाओं को न तो बाहर निकलना चाहिए, न ही चाकू कैंची आदि से सम्बन्धित कोई कार्य करना चाहिए, अन्यथा गर्भस्थ शिशु पर ग्रहण का बुरा प्रभाव पड़ता है (यद्यपि इसका कोई वैज्ञानिक प्रमाण नहीं है) तथा ग्रहण समाप्ति पर स्नानादि से निवृत्त होकर दानादि कर्म करने चाहियें | साथ ही जिन राशियों के लिए ग्रहण का अशुभ प्रभाव हो उन्हें विशेष रूप से ग्रहण शान्ति के उपाय करने चाहियें | इसके अतिरिक्त ऐसा भी माना जाता है कि पितृ दोष निवारण के लिए, मन्त्र सिद्धि के लिए तथा धार्मिक अनुष्ठानों के लिए ग्रहण की अवधि बहुत उत्तम होती है |

जैसा कि हम सभी जानते हैं कि ये सब खगोलीय घटनाएँ हैं और खगोल वैज्ञानिकों की खोज के विषय हैं क्योंकि ग्रहण के आध्यात्मिक महत्त्व के साथ ही संसार भर के वैज्ञानिकों के लिए यह अवसर किसी उत्सव से कम नहीं होता जब वे सौर मण्डल में हो रहे परिवर्तनों का अध्ययन करते हैं | तो इस विषय पर हम नहीं जाएँगे | क्योंकि विज्ञान और आस्था में भेद होता है | हम यहाँ बात करते हैं हिन्दू धार्मिक मान्यताओं और आस्थाओं की | भारतीय हिन्दू मान्यताओं तथा भविष्य पुराण, नारद पुराण आदि पौराणिक मान्यताओं के अनुसार सूर्य और चन्द्र ग्रहण अत्यन्त अद्भुत ज्योतिषीय घटनाएँ हैं जिनका समूची प्रकृति पर तथा जन जीवन पर प्रभाव पड़ता है |

यदि व्यावहारिक रूप से देखें तो इसे इस प्रकार समझना चाहिए कि जिस प्रकार वर्षाकाल में जब सूर्य को मेघों का समूह ढक लेता है उस समय प्रायः बहुत से लोगों की भूख प्यास कम हो जाती है, पाचन क्रिया भी दुर्बल हो जाती है, शरीर में आलस्य की सी स्थिति हो जाती है | इसका कारण है कि सूर्य समस्त चराचर जगत की आत्मा है – परम ऊर्जा और चेतना का स्रोत है | बादलों से ढका होने के कारण सूर्य से प्राप्त वह ऊर्जा एवं चेतना जीवों तक नहीं पहुँच पाती और उनमें इस प्रकार के परिवर्तन आरम्भ हो जाते हैं | इसी प्रकार यद्यपि चाँद घटता बढ़ता रहता हैं, किन्तु जब बादलों के कारण आकाश में चन्द्रमा के दर्शन नहीं होते तब भी समूची प्रकृति पर भावनात्मक प्रभाव पड़ना आरम्भ हो जाता है | ग्रहण में भी यह स्थिति होती है |

सूर्य और चन्द्रमा के मध्य जब पृथिवी आ जाती है और चन्द्रमा पर पृथिवी की छाया पड़ने लगती है तो उसे चन्द्र ग्रहण कहा जाता है, और जब सूर्य तथा पृथिवी के मध्य चन्द्रमा आ जाता है तो सूर्य का बिम्ब चन्द्रमा के पीछे कुछ समय के लिए ढक जाता है – इसे सूर्य ग्रहण कहा जाता है | चन्द्र ग्रहण के समय चन्द्रमा की शीतल किरणें प्राणियों तक नहीं पहुँच पातीं | ज्योतिषीय सिद्धान्तों के अनुसार चन्द्रमा को मन का कारक माना गया है | अतः चन्द्रग्रहण का मन की स्थिति पर व्यापक प्रभाव माना जाता है | तथा सूर्य ग्रहण के समय सूर्य की किरणें पूर्णतः स्वच्छ रूप में प्राणियों तक नहीं पहुँच पातीं | जिसका मनुष्यों के पाचन क्षमता, उनकी कार्य क्षमता आदि पर व्यापक प्रभाव माना जाता है | यही कारण है ग्रहण की स्थिति में कुछ भी भोजन आदि तथा अन्य कार्यों के लिए मना किया जाता है | क्योंकि न तो इस अवधि में किया गया भोजन पचाने में हमारी पाचन प्रणाली सक्षम होती है और न ही इस अवधि में उतनी अधिक कुशलता से कोई कार्य सम्भव हो पाता है | आपने देखा भी होगा कि जब पूर्ण सूर्य ग्रहण होता है – जब दिन में रात्रि के जैसा अन्धकार छा जाता है – तो मनुष्यों पर ही इसका प्रभाव नहीं पड़ता बल्कि सारी प्रकृति को रात का अनुभव होने लगता है और समूची प्रकृति मानो निद्रा देवी की गोद में समा जाती है – सारे पशु पक्षी तक अपने अपने घोसलों और दूसरे निवासों में छिप जाते हैं – क्योंकि उन्हें लगता है कि अब रात हो गई है और हमें सो जाना चाहिए | जब सारी प्रकृति ही ग्रहण के प्रति इतनी सम्वेदनशील है तो फिर मनुष्य तो स्वभावतः ही सम्वेदनशील होता है |

ज्योतिषीय दृष्टि से मिथुन राशि पर पड़ रहा यह सूर्य ग्रहण मिथुन राशि के लिए तो अनुकूल है ही नहीं – उन्हें अपने स्वास्थ्य के साथ साथ अपनी भावनाओं पर नियन्त्रण रखने की आवश्यकता है तथा भाई बहनों के साथ व्यर्थ के विवाद से बचने की भी आवश्यकता है, क्योंकि सूर्य उनका तृतीयेश है | साथ ही कर्क राशि के लिए सूर्य द्वितीयेश होकर धन तथा वाणी का कारक है और उनकी राशि से बारहवें भाव में होने के कारण इस राशि के जातकों के लिए भी इस ग्रहण को अच्छा नहीं कहा जाएगा – उन्हें अपने स्वास्थ्य तथा दुर्घटना और व्यर्थ की धनहानि के प्रति सावधान रहने की आवश्यकता होगी | वृश्चिक राशि के जातकों के लिए सूर्य दशमेश है तथा ग्रहण उनके अष्टम भाव में आ रहा है अतः उन्हें भी विशेष रूप से अपने स्वास्थ्य तथा कार्य स्थल पर गुप्त शत्रुओं की ओर से सावधान रहने की आवश्यकता होगी | मीन राशि के जातकों के लिए सूर्य षष्ठेश है और इस समय उनके चतुर्थ भाव – परिवार तथा अन्य प्रकार की सुख सुविधाओं का भाव – में गोचर कर रहा है – उनके लिए भी इसे शुभ नहीं कहा जा सकता – पारिवारिक क्लेश न होने पाए इसका प्रयास करते रहने की आवश्यकता होगी |

किन्तु साथ ही हमारा अपना यह भी मानना है कि ग्रहण जैसी आकर्षक खगोलीय घटना से भयभीत होने की अपेक्षा इसके सौन्दर्य को निहार कर प्रकृति के इस सौन्दर्य की सराहना करने की आवश्यकता है… क्योंकि इन सब बातों का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है, केवल जन साधारण की अपनी मान्यताओं, निष्ठाओं तथा आस्थाओं पर निर्भर करता है…

बहरहाल, मान्यताएँ और निष्ठाएँ, आस्थाएँ जिस प्रकार की भी हों और विज्ञान के साथ उनका सम्बन्ध स्थापित हो या नहीं, हमारी तो यही कामना है कि सब लोग स्वस्थ तथा सुखी रहें, दीर्घायु हों ताकि भविष्य में भी इस प्रकार की भव्य खगोलीय घटनाओं के साक्षी बन सकें… डॉ पूर्णिमा शर्मा…

 

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मानसिक शान्ति

मानसिक शान्ति – जिसकी आजकल हर किसी को आवश्यकता है – चाहे वह किसी भी व्यवसाय से जुड़ा हो, गृहस्थ हो, सन्यासी हो – विद्यार्थी हो – कोई भी हो – हर किसी

Dr. Purnima Sharma
Dr. Purnima Sharma

का मन किसी न किसी कारण से अशान्त रहता है | और हम अपनी मानसिक अशान्ति का दोष अपनी परिस्थितियों तथा अपने आस पास के व्यक्तियों पर – समाज पर – मढ़ देते हैं | कितना भी ब्रह्म मुहूर्त में प्राणायाम, योग और ध्यान का अभ्यास कर लिया जाए, कितना भी चक्रों को जागृत कर लिया जाए – मन की अशान्ति, क्रोध, चिड़चिड़ापन और कई बार उदासी यानी डिप्रेशन भी – जाता ही नहीं | किन्तु समस्या यह है कि जब तक व्यक्ति का मन शान्त नहीं होगा तब तक वह अपने कर्तव्य कर्म भी सुचारु रूप से नहीं कर पाएगा, क्योंकि मन एक स्थान पर – एक लक्ष्य पर स्थिर ही नहीं रह पाएगा | हमने ऐसे लोग देखें हैं जो नियमित ध्यान का अभ्यास करते हैं, प्राणायाम, ध्यान और योग सिखाते भी हैं – लेकिन उनके भीतर का क्रोध, घृणा, लालच, दूसरों को नीचा दिखाने की उनकी प्रवृत्ति में कहीं किसी प्रकार की कमी नहीं दिखाई देती |

अस्तु, मन को शान्त करने के क्रम में सबसे पहला अभ्यास है मन को – अपने ध्यान को – उन बातों से हटाना जिनके कारण व्यवधान उत्पन्न होते हैं या मन के घोड़े इधर उधर भागते हैं | जब तक इस प्रकार की बातें मन में रहेंगी – मन का शान्त और स्थिर होना कठिन ही नहीं असम्भव भी है | इसीलिए पतंजलि ने मनःप्रसादन की व्याख्या दी है |

महर्षि पतंजलि ने ऐसे कुछ भावों के विषय में बताया है जो इस प्रकार की बाधाओं को दूर करने में सहायक होते हैं | ये हैं – मित्रता, करुणा या संवेदना और धैर्य तथा समभाव | निश्चित रूप से यदि मनुष्य इन प्रवृत्तियों को अपने दिन प्रतिदिन के व्यवहार में अपना लेता है तो नकारात्मक विचार मन में आने ही नहीं पाएँगे | किसी भी व्यक्ति के किसी विषय में व्यक्तिगत विचार हो सकते हैं | यदि उसके उन विचारों से किसी को कोई हानि नहीं पहुँच रही है तो हमें इसकी आलोचना करने का या उसे टोकने का कोई अधिकार नहीं | ऐसा करके हम अपना मन ही अशान्त नहीं करते, वरन अपनी साधना के मार्ग में व्यवधान उत्पन्न करके लक्ष्य से बहुत दूर होते चले जाते हैं |

अतः जब भी और जहाँ भी कुछ अच्छा – कुछ आनन्ददायक – कुछ सकारात्मक ऊर्जा से युक्त दीख पड़े – हमें सहज आनन्द के भाव से उसकी सराहना करनी चाहिए और यदि सम्भव हो तो उसे आत्मसात करने का प्रयास भी करना चाहिए, ताकि हमारे मन में वह आनन्द का अनुभव दीर्घ समय तक बना रहे – न कि अपनी व्यक्तिगत ईर्ष्या, दम्भ, अहंकार आदि के कारण उस आनन्ददायक क्षण से विरत होकर उदासी अथवा क्रोध की चादर ओढ़कर एक ओर बैठ जाया जाए | ऐसा करके आप न केवल उस आनन्द के क्षण को व्यर्थ गँवा देंगे, बल्कि चिन्ताग्रस्त होकर अपनी समस्त सम्भावनाओं को भी नष्ट कर देंगे | आनन्द के क्षणों में कुछ इतर मत सोचिए – बस उन कुछ पलों को जी लीजिये | इसी प्रकार जब कभी कोई प्राणी कष्ट में दीख पड़े हमें उसके प्रति दया, करुणा, सहानुभूति और अपनापन दिखाने में तनिक देर नहीं करनी चाहिए | आगे बढ़कर स्नेहपूर्वक उसे भावनात्मक अवलम्ब प्रदान चाहिए |

इस प्रकार चित्त प्रसादन के उपायों का पालन करके कोई भी व्यक्ति मानसिक स्तर पर एकाग्र तथा प्रसन्न अवस्था में रह सकता है | यदि हमारा व्यवहार ऐसा होगा – यदि इन दोनों बातों का अभ्यास हम अपने नित्य प्रति के जीवन में करेंगे – तो हमारा चित्त प्रसन्न रहेगा – और विश्वास कीजिये – इससे बड़ा ध्यान का अभ्यास कुछ और नहीं हो सकता | इस अभ्यास को यदि हम दोहराते रहते हैं तो कोई भी विषम परिस्थिति हमारा चित्त अशान्त नहीं कर पाएगी – किसी भी प्रकार का नकारात्मक विचार हमारे मन में नहीं उत्पन्न होने पाएगा और हमारा मन आनन्दमिश्रित शान्ति का अनुभव करेगा… डॉ पूर्णिमा शर्मा 

 

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हम क्या हैं

प्रायः हम अपने मित्रों से ऐसे प्रश्न कर बैठते हैं कि हमें तो अभी तक यही समझ नहीं आ रहा है कि हम हैं क्या अथवा हमारे जीवन का उद्देश्य क्या है ? हम इस माया मोह के चक्र से मुक्त होना चाहते हैं, किन्तु निरन्तर जाप करते रहने के बाद भी हम इस चक्रव्यूह को भेद नहीं पा रहे हैं | समझ नहीं आता क्या करें | इस प्रकार की बातों पर एक छोटी से कहानी का स्मरण हो आता है जो कभी अपनी माँ से सुनी थी | आज आपको भी सुना ही दें |

कहानी कुछ इस तरह से है कि एक चिड़िया का एक छोटा सा बच्चा था, जिसे वो चिड़िया उड़ना सिखा रही थी | हर दिन माँ अपने बच्चे को कोई न कोई नई बात सिखाती खुले आकाश में उड़ने के लिए – कोई न कोई नई तकनीक उसे करके दिखाती ताकि वह बच्चा उस तकनीक को सीख कर इस विशाल और असीम आकाश में जितनी दूर और जितनी ऊँची चाहे उड़ान भर सके | बहुत समय तक बच्चा अपनी माँ के साथ उड़ने का अभ्यास करता रहा | एक दिन जब माँ को लगा कि अब उसका बच्चा इतना सीख चुका है कि उसे अब अकेले आकाश नापने के लिए भेजा जा सकता है तो उसने बच्चे को उड़ान भरने की आज्ञा दे इ | जब वो घोसले से बाहर निकलने लगा तो माँ ने समझाया “बेटा पहली बार अकेले जा रहे हो और अब हर दिन अपना दाना चुग्गा चुनने अकेले ही जाया करोगे, क्योंकि अब तुम बड़े हो गए हो और आत्मनिर्भर बन सकते हो | लेकिन बेटा सदा ही कुछ बातों का ध्यान अवश्य रखना | एक तो शाम को घर जल्दी वापस लौट आना – सूर्यास्त से पहले ही, देर मत करना | दूसरे, रास्ते में कहीं व्यर्थ में ही मत रुकना, आजकल पंछियों को जाल में फँसाने की ताक में लोग बैठे रहते हैं और दाने का लालच देते रहते हैं | साथ ही मन में बस एक ही मन्त्र का जाप करते रहोगे कि “मैं किसी लालच में नहीं पडूँगा और शिकारियों से सावधान रहूँगा |” तो ये बात तुम्हारे मन में बैठ जाएगी और तुम सदा शिकारियों की ओर से सावधान रहोगे…” माँ ने बार बार इस मन्त्र का जाप बच्चे से कराया और बच्चा खुले आकाश में उड़ान भरने लगा |

एक दिन बहुत देर हो गई, सूर्यदेव छिप गए, लेकिन बच्चा नहीं लौटा | माँ को चिन्ता होनी स्वाभाविक थी | चिन्तित माँ बच्चे की खोज में निकली | कुछ दूर जाने पर क्या देखती है कि उसका बच्चा किसी शिकारी के जाल में फँसा हुआ है और माँ के दिए मन्त्र का जाप किये जा रहा है “मैं किसी लालच में नहीं पडूंगा और शिकारियों से सावधान रहूँगा |”

हमारा जीवन भी ऐसा ही है | हम निरन्तर अपने गुरुजनों द्वारा दिए गए इसी मन्त्र का जाप करते रहते हैं कि अपनी स्वतन्त्रता अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए हम किसी लालच में नहीं फँसेंगे, किन्तु केवल वाणी से “जाप” भर करते हैं | इस मन्त्र का अर्थ जानते भी हैं, किन्तु उस अर्थ को “समझने” का प्रयास नहीं करते | सब कुछ जानते हुए भी प्रायः हम अपनी ही अभिलाषाओं और अहंकार के जाल में फँसते चले जाते हैं और उन्हीं के अनुरूप कर्म और प्रयास करते रहते हैं | तो सबसे बड़ी समस्या यहीं पर है | हम स्वयं इस तथ्य की खोज में असफल रहते हैं कि हम वास्तव में चाहते क्या हैं और बहुत शीघ्र ही बहुत छोटी छोटी सारहीन बातों और वस्तुओं की ओर आकर्षित होकर मान बैठते हैं कि यही तो हमें चाहिए | कुछ दिनों के बाद उससे उकता जाते हैं और फिर किसी नवीन वस्तु की ओर आकर्षित हो जाते हैं | और यही क्रम जीवन भर चलता रहता है |

इसलिए, हमें बड़ी सावधानी से इस तथ्य को समझने का प्रयास करना चाहिए कि हमारे जीवन का उद्देश्य क्या है, उसके लिए हम कितना प्रयास कर रहे हैं और उन प्रयासों से हमारी क्या अपेक्षाएँ हैं | पूरी निष्ठा तथा विश्वास के साथ यदि ऐसा करेंगे तो कर्म भी अनुकूल दिशा में करेंगे जिनके कारण सफलता अवश्य प्राप्त होगी, क्योंकि निष्ठा और विश्वास ही मूर्त रूप में परिणत होते हैं | जैसा कि भगवान श्री कृष्ण ने गीता में कहा भी है कि सभी मनुष्यों की श्रद्धा उनके सत्त्व अर्थात स्वभाव और संस्कार के अनुरूप होती है | मनुष्य स्वभाव से ही श्रद्धावान है, इसलिए जो व्यक्ति जिस श्रद्धा वाला है वह स्वयं भी वैसा ही है अर्थात् जैसी जिसकी श्रद्धा होगी वैसा ही उसका रूप, गुण, धर्म होगा तथा उसी के अनुरूप उसका कर्तव्य कर्म तथा प्रयास होगा…

सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत |
श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्धः स एव सः ||17/3||

इसलिए हमें अपने स्वयं के प्रति ईमानदार होने की आवश्यकता है कि हम अपने विषय में क्या सोचते हैं, क्या करना चाहते हैं | कोई अन्य न तो यह जानना चाहेगा कि हम स्वयं अपने विषय में क्या सोचते हैं न ही वह हमें यह बता पाने में समर्थ ही होगा | हमें स्वयं ही स्वयं के समक्ष यह सिद्ध करना होगा कि हमने किसी लालच के फँसे बिना कितनी निष्ठा और कितने विश्वास के साथ प्रयास किया है स्वयं को जानने का… तभी हम अपने जीवन का उद्देश्य समझ पाएँगे, तभी अनुकूल कर्म करते हुए अपने प्रयासों में सफल हो पाएँगे और तभी हमारी स्वयं के प्रयासों से जो अपेक्षाएँ हैं वे सन्तुष्ट हो पाएँगी…

डॉ पूर्णिमा शर्मा 

 

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Selfishness and selflessness 

स्वार्थ और स्वार्थहीनता

स्वार्थ और स्वार्थहीनता – यानी निस्वार्थता – दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं…

वास्तव में स्वार्थ यानी स्व + अर्थ अर्थात अपने लिए किया गया कार्य | हम सभी अपने लिए ही कार्य करते हैं – अपने आनन्द के लिए, अपने जीवन यापन के लिए, अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए | यदि हम अपने लिए ही कार्य नहीं कर सकते तो फिर दूसरों के लिए कुछ भी कैसे कर सकते हैं ? जब तक हम स्वयं सन्तुष्ट और प्रसन्न नहीं होंगे तब तक दूसरों का विचार भी हमारे मन में नहीं आ सकता | संसार में जितने भी सम्बन्ध हैं – शिशु के माता के गर्भ में आने से लेकर – सभी स्वार्थवश ही बनते हैं | संसार

Dr. Purnima Sharma
Dr. Purnima Sharma

में समस्त प्रकार के सम्बन्धों के मध्य प्रेम भावना इसी स्वार्थ का परिणाम है – और ये स्वार्थ है आनन्द | आनन्द प्राप्ति के लिए ही हम परस्पर प्रेम की भावना से रहते हैं | इस प्रकार देखा जाए तो स्वार्थ नींव है किसी भी सम्बन्ध की | समस्या तब उत्पन्न होती है जब हम स्वार्थ यानी आनन्द को भुलाकर केवल अपने ही लाभ हानि के विषय में सोचना आरम्भ कर देते हैं और दूसरों के लिए समस्या उत्पन्न करना आरम्भ कर देते हैं |

संसार में हर प्राणी अपने स्वयं के हित के लिए ही कार्य करता है | जैसे अपनी तथा अपने परिवार और समाज की रक्षा करना भी एक प्रकार का स्वार्थ ही है | एक जीव अपनी उदर पूर्ति के लिए दूसरे जीव का भक्षण करता है – यह भी स्वार्थ ही है | व्यक्ति को अपने जीवन निर्वाह के लिए स्वार्थ सिद्ध करना अत्यन्त आवश्यक है | किन्तु यह स्वार्थ सिद्धि यदि मर्यादा के भीतर रहकर की जाएगी तो इसके कारण कोई हानि किसी की नहीं होगी, बल्कि हो सकता है दूसरों का लाभ ही हो जाए |

इसे हम ऐसे समझ सकते हैं कि एक व्यक्ति एक इण्डस्ट्री लगाता है | लगाता है स्वयं धनोपार्जन के लिए ताकि वह और उसका परिवार सुखपूर्वक जीवन व्यतीत कर सकें, लेकिन उसके इण्डस्ट्री लगाने से अन्य बहुत से लोगों को वहाँ धनोपार्जन का अवसर प्राप्त होता है | इस प्रकार उस व्यक्ति के द्वारा किये गए स्वार्थपूर्ण कार्य से अन्यों का भी हित हो रहा है तो इस प्रकार का स्वार्थ तो हर किसी समर्थ व्यक्ति को करना चाहिए | इसे और इस तरह समझ सकते हैं कि हम अपने घरों में काम करने के लिए किसी व्यक्ति – महिला या पुरुष – को रखते हैं तो ये हमारा स्वार्थ है कि हमें उसकी सहायता मिल जाती है अपने दिन प्रतिदिन के कार्यों में, लेकिन साथ ही उस व्यक्ति को भी आर्थिक सहायता हमारे इस कृत्य से प्राप्त होती है – हम कहेंगे की  कि इस प्रकार के स्वार्थ अवश्य सिद्ध करना चाहिए |

वास्तव में मनुष्य की आवश्यकताएँ ही उसका सबसे बड़ा स्वार्थ हैं | कामवाली बाई भी उसी स्वार्थ के कारण – यानी अपनी और परिवार की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए – हमारे आपके यहाँ कार्य करती है | कार्य का आरम्भ ही स्वार्थ के कारण होता है | स्वार्थ समाप्त हो जाए तो कर्म की इच्छा ही न रह जाए और मनुष्य निष्कर्मण्य होकर बैठ जाए | अतः अपनी तथा अपने साथ साथ दूसरों की आवश्यकताओं की पूर्ति का स्वार्थ सिद्ध करना तो हर व्यक्ति का उत्तरदायित्व है |

किन्तु समस्या वहाँ उत्पन्न होती है जब स्वार्थ असन्तुलित हो जाता है | मान लीजिये हम इस जुगत में लग जाएँ कि काम करने वाली बाई से कम पैसे में किस तरह अधिक से अधिक काम करा सकें, बात बात पर उस पर गुस्सा करने लग जाएँ, उसके प्रति सहृदयता का भाव न रखें तो यह स्वार्थ की मूलभूत भावना का अतिक्रमण होगा और निश्चित रूप से इसका परिणाम किसी के भी हित में नहीं होगा | स्वार्थ की अधिकता होते ही व्यक्ति में लोभ आदि दुर्गुण बढ़ते जाते है और वह अनुचित प्रयासों से कार्य सिद्ध करना आरम्भ कर देता है | विवेक की कमी हो जाने के कारण मनुष्य परिणाम की भी चिन्ता करना छोड़ देता है और विनाश की ओर अग्रसर होता जाता है | हमने घरों का उदाहरण दिया है, लेकिन हर जगह यही नियम लागू होता है – चाहे आपका कोई व्यवसाय हो, पाठशाला हो, अस्पताल हो – कुछ भी हो – स्वार्थ की परिभाषा तो यही रहेगी |

एक और छोटा सा उदाहरण अपने परिवारों का ही लें – सन्तान को हम जन्म देते हैं, पाल पोस कर बड़ा करते हैं, अच्छी शिक्षा दीक्षा का प्रबन्ध करते हैं | क्यों करते हैं हम ये सब ? क्योंकि हमें आनन्द प्राप्त होता है इस सबसे | और हमारा ये आनन्द प्राप्ति का स्वार्थ अच्छा स्वार्थ है जिससे हमारी सन्तान प्रगति की ओर अग्रसर होती है | लेकिन उसके बदले में जब हम सन्तान से अपेक्षा रखनी आरम्भ कर देते हैं तो हमारे स्वार्थ का रूप विकृत होना आरम्भ हो जाता है जिसके कारण सन्तान के साथ सम्बन्धों में दरार आनी आरम्भ हो जाती हैं | सन्तान ने तो हमसे नहीं कहा था हमें जन्म दो और हमारा लालन पालन करो, हमने अपने सुख के लिए किया | अब आगे उसकी इच्छा – वो हमें हमारे स्नेह का प्रतिदान दे या न दे | और विश्वास कीजिए, जब हम सन्तान से किसी प्रकार की अपेक्षा नहीं रखेंगे तो हमें स्वयं ही सन्तान से वह स्नेह और सम्मान प्राप्त होगा – क्योंकि यह सन्तान का स्वार्थ है – उसे इसमें आनन्द की अनुभूति होती है | अर्थात आवश्यकता बस इतनी सी है कि स्वार्थसिद्धि का प्रयास अवश्य करें, किन्तु निस्वार्थ भाव से – फल की चिन्ता किये बिना | जहाँ फल की चिन्ता आरम्भ की कि स्वार्थ साधना का रूप विकृत हो गया |

अतः, आत्मोन्नति के लिए स्वार्थ की निस्वार्थता में परिणति नितान्त आवश्यक है… हम सब अपनी इच्छाओं और महत्त्वाकांक्षाओं के क्षेत्र को विस्तार देकर उन्हें निस्वार्थ बनाने का प्रयास करते हैं तो अपने साथ साथ समाज की और देश की उन्नति में भी सहायक हो सकते हैं…

डॉ पूर्णिमा शर्मा 

https://www.astrologerdrpurnimasharma.com/2020/02/26/selfishness-and-selflessness/