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The Spiritual Aspect of Durga Saptshati

The Spiritual Aspect of Durga Saptshati

दुर्गा सप्तशती का आध्यात्मिक रहस्य

आज चैत्र नवरात्रों का समापन हुआ है | इस वर्ष भी गत वर्ष की ही भाँति कन्या पूजन नहीं कर सके – कोरोना के चलते सब कुछ बन्द ही रहा | आज सभी जानते हैं कि ऐसी

Katyayani Dr. Purnima Sharma
Katyayani Dr. Purnima Sharma

स्थिति है कि बहुत से परिवारों में तो पूरा का पूरा परिवार ही कोरोना का कष्ट झेल रहा है | किन्तु इतना होने पर भी उत्साह में कहीं कोई कमी नहीं रही – और यही है भारतीय जन मानस की सकारात्मकता | कोई बात नहीं, माँ भगवती की कृपा से अगले वर्ष सदा की ही भाँति नवरात्रों का आयोजन होगा |

पूरे नवरात्रों में भक्ति भाव से दुर्गा सप्तशती में वर्णित देवी की तीनों चरित्रों – मधुकैटभ वध, महिषासुर वध और शुम्भ निशुम्भ का उनकी समस्त सेना के सहित वध की कथाओं का पाठ किया जाता है | इन तीनों चरित्रों को पढ़कर इहलोक में पल पल दिखाई देने वाले अनेकानेक द्वन्द्वों का स्मरण हो आता है | किन्तु देवी के ये तीनों ही चरित्र इस लोक की कल्पनाशीलता से बहुत ऊपर हैं | दुर्गा सप्तशती किसी लौकिक युद्ध का वर्णन नहीं, वरन् एक अत्यन्त दिव्य रहस्य को समेटे उपासना ग्रन्थ है |

गीता ग्रन्थों में जिस प्रकार श्रीमद्भगवद्गीता ज्ञानकाण्ड का सर्वोपयोगी और लोकप्रिय ग्रन्थ है, उसी प्रकार दुर्गा सप्तशती ज्ञानकाण्ड और कर्मकाण्ड का सर्वोपयोगी और लोकप्रिय ग्रन्थ है | यही कारण है कि लाखों मनुष्य नित्य श्रद्धा-भक्ति पूर्वक इसका पाठ और अनुष्ठान आदि करते हैं | इतना ही नहीं, संसार के अन्य देशों में भी शक्ति उपासना किसी न किसी रूप में प्रचलित है | यह शक्ति है क्या ? शक्तिमान का वह वैशिष्ट्य जो उसे सामान्य से पृथक् करके प्रकट करता है शक्ति कहलाता है | शक्तिमान और शक्ति वस्तुतः एक ही तत्व है | तथापि शक्तिमान की अपेक्षा शक्ति की ही प्रमुखता रहती है | उसी प्रकार जैसे कि एक गायक की गायन शक्ति का ही आदर, उपयोग और महत्व अधिक होता है | क्योंकि संसार गायक के सौन्दर्य आदि पर नहीं वरन् उसकी मधुर स्वर सृष्टि के विलास में मुग्ध होता है | इसी प्रकार जगन्नियन्ता को उसकी जगत्कर्त्री शक्ति से ही जाना जाता है | इसी कारण शक्ति उपासना का उपयोग और महत्व शास्त्रों में स्वीकार किया गया है |

उपासना केवल सगुण ब्रह्म की ही हो सकती है | क्योंकि जब तक द्वैत भाव है तभी तक उपासना सम्भव है | द्वित्व समाप्त हो जाने पर तो जीव स्वयं ब्रह्म हो जाता – अहम् ब्रह्मास्मि की भावना आ जाने पर व्यक्ति समस्त प्रकार की उपासना आदि से ऊपर उठ जाता है | द्वैत भाव का आधार सगुण तत्व है | सगुण उपासना के पाँच भेद बताए गए हैं – चित् भाव, सत् भाव, तेज भाव, बुद्धि भाव और शक्ति भाव | इनमें चित् भाव की उपासना विष्णु उपासना है | सत् भावाश्रित उपासना शिव उपासना है | भगवत्तेज की आश्रयकारी उपासना सूर्य उपासना होती है | भगवद्भाव से युक्त बुद्धि की आश्रयकारी उपासना धीश उपासना होती है | तथा भगवत्शक्ति को आश्रय मानकर की गई उपासना शक्ति उपासना कहलाती है | यह सृष्टि ब्रह्मानन्द की विलास दशा है | इसमें ब्रह्म पद से घनिष्ठ सम्बन्ध रखने वाले पाँच तत्व हैं – चित्, सत्, तेज, बुद्धि और शक्ति | इनमें चित् सत्ता जगत् को दृश्यमान बनाती है | सत् सत्ता इस दृश्यमान जगत् के अस्तित्व का अनुभव कराती है | तेज सत्ता के द्वारा जगत् का ब्रह्म की ओर आकर्षण होता है | बुद्धि सत्ता ज्ञान प्रदान करके इस भेद को बताती है कि ब्रह्म सत् है और जगत् असत् अथवा मिथ्या है | और शक्ति सत्ता जगत् की सृष्टि, स्थिति तथा लय कराती हुई जीव को बद्ध भी कराती है और मुक्त भी | उपासक इन्हीं पाँचों का अवलम्बन लेकर ब्रह्मसान्निध्य प्राप्त करता हुआ अन्त में ब्रह्मरूप को प्राप्त हो जाता है |

शक्ति उपासना वस्तुतः यह ज्ञान कराती है कि यह समस्त दृश्य प्रपंच ब्रहम शक्ति का ही विलास है | यही ब्रह्म शक्ति सृष्टि, स्थिति तथा लय कराती है | एक ओर जहाँ यही ब्रह्मशक्ति अविद्या बनकर जीव को बन्धन में बाँधती है, वहीं दूसरी ओर यही विद्या बनकर जीव को ब्रह्म साक्षात्कार करा कर उस बन्धन से मुक्त भी कराती है | जिस प्रकार गायक और उसकी गायन शक्ति एक ही तत्व है, उसी प्रकार ब्रह्म और ब्रह्म शक्ति में “अहं ममेति” जैसा भेद नहीं है | वेद और शास्त्रों में इस ब्रह्म शक्ति के चार प्रकार बताए गए हैं | जो निम्नवत् हैं :

तुरीया शक्ति – यह प्रकार ब्रह्म में सदा लीन रहने वाली शक्ति का है | यही ब्रह्मशक्ति स्व-स्वरूप प्रकाशिनी होती है | वास्तव में सगुण और निर्गुण का जो भेद है वह केवल ब्रह्म शक्ति की महिमा के ही लिये है | जब तक महाशक्ति स्वरूप के अंक में छिपी रहती है तब तक सत् चित् और आनन्द का अद्वैत रूप से एक रूप में अनुभव होता है | वह तुरीया शक्ति जब स्व-स्वरूप में प्रकट होकर सत् और चित् को अलग अलग दिखाती हुई आनन्द विलास को उत्पन्न करती है तब वह पराशक्ति कहाती है | वही पराशक्ति जब स्वरूपज्ञान उत्पन्न कराकर जीव के अस्तित्व के साथ स्वयं भी स्व-स्वरूप में लय हो निःश्रेयस का उदय करती है तब उसी को पराविद्या कहते हैं |

कारण शक्ति – अपने नाम के अनुरूप ही यह शक्ति ब्रह्मा-विष्णु-महेश की जननी है | यही निर्गुण ब्रह्म को सगुण दिखाने का कारण है | यही कभी अविद्या बनकर मोह में बाँधती है, और यही विद्या बनकर जीव की मुक्ति का कारण भी बनती है |

सूक्ष्म शक्ति – ब्राह्मी शक्ति – जो कि जगत् की सृष्टि कराती है, वैष्णवी शक्ति – जो कि जगत् की स्थिति का कारण है, और शैवी शक्ति – जो कि कारण है जगत् के लय का | ये तीनों ही शक्तियाँ सूक्ष्म शक्तियाँ कही जाती हैं | स्थावर सृष्टि, जंगम सृष्टि, ब्रह्माण्ड या पिण्ड कोई भी सृष्टि हो – सबको सृष्टि स्थिति और लय के क्रम से यही तीनों ब्रह्म शक्तियाँ अस्तित्व में रखती हैं | प्रत्येक ब्रह्माण्ड के नायक ब्रह्मा विष्णु और महेश इन्हीं तीनों शक्तियों की सहायता से अपना अपना कार्य सुचारू रूप से सम्पन्न करते हैं | 

स्थूल शक्ति – चौथी ब्रह्म शक्ति है स्थूल शक्ति | स्थूल जगत् का धारण, उसकी अवस्थाओं में परिवर्तन आदि समस्त कार्य इसी स्थूल शक्ति के द्वारा ही सम्भव हैं |

ब्रह्म शक्ति के उपरोक्त चारों भेदों के आधार पर शक्ति उपासना का विस्तार और महत्व स्वतः ही स्पष्ट हो जाता है | समस्त जगत् व्यापार का कारण ब्रह्म शक्ति ही है | वही सृष्टि, स्थिति और लय का कारण है | वही जीव के बन्ध का कारण है | वही ब्रह्म साक्षात्कार और जीव की मुक्ति का माध्यम है | ब्रह्मशक्ति के विलासरूप इस ब्रह्माण्ड-पिण्डात्मक सृष्टि में भू-भुवः-स्वः आदि सात ऊर्ध्व लोक हैं और अतल-वितल-पाताल आदि सात अधः लोक हैं | ऊर्ध्व लोकों में देवताओं का वास होता है और अधः लोकों में असुरों का | सुर और असुर दोनों ही देवपिण्डधारी हैं | भेद केवल इतना ही है कि देवताओं में आत्मोन्मुख वृत्ति की प्रधानता होती है और असुरों में इन्द्रियोन्मुख वृत्ति की | इस प्रकार वास्तव में सूक्ष्म देवलोक में प्रायः होता रहने वाला देवासुर संग्राम आत्मोन्मुखी और इन्द्रियोन्मुखी वृत्तियों का ही संग्राम है | आत्मोन्मुखी वृत्ति की प्रधानता के ही कारण देवता कभी भी असुरों का राज्य छीनने की इच्छा नहीं रखते, वरन् अपने ही अधिकार क्षेत्र में तृप्त रहते हैं | जबकि असुर निरन्तर देवराज्य छीनने के लिये तत्पर रहते हैं | क्योंकि उनकी इन्द्रियोन्मुख वृत्ति उन्हें विषयलोलुप बनाती है | जब जब देवासुर संग्राम में असुरों की विजय होने लगती है तब तब ब्रह्मशक्ति महामाय की कृपा से ही असुरों का प्रभव होकर पुनः शान्ति स्थापना होती है | मनुष्य पिण्ड में भी जो पाप पुण्य रूप कुमति और सुमति का युद्ध चलता है वास्तव में वह भी इसी देवासुर संग्राम का ही एक रूप है | मानवपिण्ड देवताओं और असुरों दोनों के ही लिये एक दुर्ग के सामान है | आत्मोन्मुखी वृत्ति की प्रधानता होने पर देवता इस मानवपिण्ड को अपने अधिकार में करना चाहते हैं, तो इन्द्रियोन्मुखी वृत्ति की प्रधानता होने पर असुर मानवपिण्ड को अपने अधिकार में करने को उत्सुक होते हैं | जब जब मनुष्य इन्द्रियोन्मुख होकर पाप के गर्त में फँसता जाता है तब तब उस महाशक्ति की कृपा से दैवबल से ही वह आत्मोन्मुखी बनकर उस दलदल से बाहर निकल सकता है |

यह मृत्युलोक सात ऊर्ध्व लोकों में से भूलोक का एक चतुर्थ अंश माना जाता है | इसमें समस्त जीव माता के गर्भ से उत्पन्न होते हैं और मृत्यु को प्राप्त होते हैं | इसी कारण इसे मृत्यु लोक कहा जाता है | अन्य किसी भी लोक में माता के गर्भ से जन्म नहीं होता | मृत्यु लोक के ही जीव मृत्यु के पश्चात् अपने अपने कर्मों के आधार पर सूक्ष्म शरीर से अन्य लोकों में दैवी सहायता से पहुँच जाते हैं | मनुष्य लोक के अतिरिक्त जितने भी लोक हैं वे सब देवलोक ही हैं | उनमें दैवपिण्डधारी देवताओं का ही वास होता है | सहजपिण्डधारी (उद्भिज्जादि योनियाँ) तथा मानवपिण्डधारी जीव उन दैवपिण्डधारी जीवों को देख भी नहीं सकते | ये समस्त देवलोक हमारे पार्थिव शरीर से अतीत हैं और सूक्ष्म हैं | देवासुर संग्राम में जब असुरों की विजय होने लगती है तब ब्रह्मशक्ति की कृपा से ही देवराज्य में शान्ति स्थापित होती है |

ब्रह्म सत्-चित् और आनन्द रूप से त्रिभाव द्वारा माना जाता है | जिस प्रकार कारण ब्रहम में तीन भाव हैं उसी प्रकार कार्य ब्रह्म भी त्रिभावात्मक है | इसीलिये वेद और वेदसम्मत शास्त्रों की भाषा भी त्रिभावात्मक ही होती है | इसी परम्परा के अनुसार देवासुर संग्राम के भी तीन स्वरूप हैं | जो दुर्गा सप्तशती के तीन चरित्रों में वर्णित किये गए हैं | देवलोक में ये ही तीनों रूप क्रमशः प्रकट होते हैं | पहला मधुकैटभ के वध के समय, दूसरा महिषासुर वध के समय और तीसरा शुम्भ निशुम्भ के वध के समय | वह अरूपिणी, वाणी मन और बुद्धि से अगोचरा सर्वव्यापक ब्रह्म शक्ति भक्तों के कल्याण के लिये अलौकिक दिव्य रूप में प्रकट हुआ करती है | ब्रह्मा में ब्राह्मी शक्ति, विष्णु में वैष्णवी शक्ति और शिव में शैवी शक्ति जो कुछ भी है वह सब उसी महाशक्ति का अंश है | त्रिगुणमयी महाशक्ति के तीनों गुण ही अपने अपने अधिकार के अनुसार पूर्ण शक्ति विशिष्ट हैं | अध्यात्म स्वरूप में प्रत्येक पिण्ड में क्लिष्ट और अक्लिष्ट वृत्तियों का संघर्ष, अधिदैव स्वरूप में देवासुर संग्राम और अधिभौतिक स्वरूप में मृत्युलोक में विविध सामाजिक संघर्ष तथा राजनीतिक युद्ध – सप्तशती गीता इन्हीं समस्त दार्शनिक रहस्यों से भरी पड़ी है | यह इस कलियुग में मानवपिण्ड में निरन्तर चल रहे इसी देवासुर संग्राम में दैवत्व को विजय दिलाने के लिये वेदमन्त्रों से भी अधिक शक्तिशाली है |

दुर्गा सप्तशती उपासना काण्ड का प्रधान प्रवर्तक उपनिषद ग्रन्थ है | इसका सीधा सम्बन्ध मार्कंडेय पुराण से है | सप्तशती में अष्टम मनु सूर्यपुत्र सावर्णि की उत्पत्ति की कथा है | यह कथा कोई लौकिक इतिहास नहीं है | पुराण वर्णित कथाएँ तीन शैलियों में होती हैं | एक वे विषय जो समाधि से जाने जा सकते हैं – जैसे आत्मा, जीव, प्रकृति आदि | इनका वर्णन समाधि भाषा में होता है | दूसरे, इन्हीं समाधिगम्य अध्यात्म तथा अधिदैव रहस्यों को जब लौकिक रीति से आलंकारिक रूप में कहा जाता है तो लौकिक भाषा का प्रयोग होता है | मध्यम अधिकारियों के लिये यही शैली होती है | तीसरी शैली में वे गाथाएँ प्रस्तुत की जाती हैं जो पुराणों की होती हैं | ये गाथाएँ परकीया भाषा में प्रस्तुत की जाती हैं | दुर्गा सप्तशती में तीनों ही शैलियों का प्रयोग है | जो प्रकरण राजा सुरथ और समाधि वैश्य के लिये परकीय भाषा में कहा गया है उसी प्रकरण को देवताओं की स्तुतियों में समाधि भाषा में और माहात्म्य के रूप में लौकिक भाषा में व्यक्त किया गया है |

राजा सुरथ और समाधि वैश्य को ऋषि ने परकीय भाषा में देवी के तीनों चरित्र सुनाए | क्योंकि वे दोनों समाधि भाषा के अधिकारी नहीं थे | तदुपरान्त लौकिक भाषा में उनका अधिदैवत् स्वरूप समझाया | और तब समाधि भाषा में मोक्ष का मार्ग प्रदर्शित किया :

ज्ञानिनामपि चेतांसि देवी भगवती हि सा, बलादाकृष्य मोहाय महामाया प्रयच्छति ||

तया विसृज्यते विश्वं जगदेतच्चराचरम्, सैषा प्रसन्ना वरदा नृणाम् भवति मुक्तये ||

सा विद्या परमा मुक्तेर्हेतुभूता सनातनी, संसारबन्धहेतुश्च सैव सर्वेश्वरेश्वरी ||

प्रथम चरित्र में भगवान् विष्णु योगनिद्रा से जागकर मधुकैटभ का वध करते हैं | भगवान् विष्णु की यह अनन्त शैया महाकाश की द्योतक है | इस चरित्र में ब्रह्ममयी की तामसी शक्ति का वर्णन है | इसमें तमोमयी शक्ति के कारण युद्धक्रिया सतोगुणमय विष्णु के द्वारा सम्पन्न हुई | सत्व गुण ज्ञानस्वरूप आत्मा का बोधक है | इसी सत्वगुण के अधिष्ठाता हैं भगवान् विष्णु | ब्राह्मी सृष्टि में रजोगुण का प्राधान्य रहता है और सतोगुण गौण रहता है | यही भगवान् विष्णु का निद्रामग्न होना है | जगत् की सृष्टि करने के लिये ब्रह्मा को समाधियुक्त होना पड़ता है | जिस प्रकार सर्जन में विघ्न भी आते हैं उसी प्रकार इस समाधि भाव के भी दो शत्रु हैं – एक है नाद और दूसरा नादरस | नाद एक ऐसा शत्रु है जो अपने आकर्षण से तमोगुण में पहुँचा देता है | यही नाद मधु है | समाधिभाव के दूसरे शत्रु नादरस के प्रभाव से साधक बहिर्मुख होकर लक्ष्य से भटक जाता है | जिसका परिणाम यह होता है कि साधक निर्विकल्पक समाधि – अर्थात् वह अवस्था जिसमें ज्ञाता और ज्ञेय में भेद नहीं रहता – को त्याग देता है और सविकल्पक अवस्था को प्राप्त हो जाता है | यही नादरस है कैटभ | क्योंकि मधु और कैटभ दोनों का सम्बन्ध नाद से है इसीलिये इन्हें “विष्णुकर्णमलोद्भूत” कहा गया है | मधु कैटभ वध के समय नव आयुधों का वर्णन शक्ति की पूर्णता का परिचायक है | यह है महाशक्ति का नित्यस्थित अध्यात्मस्वरूप | यह प्रथम चरित्र सृष्टि के तमोमय रूप का प्रकाशक होने के कारण ही प्रथम चरित्र की देवता महाकाली हैं | क्योंकि तम में क्रिया नही  होती | अतः वहाँ मधु कैटभ वध की क्रिया भगवान् विष्णु के द्वारा सम्पादित हुई | क्योंकि तामसिक महाशक्ति की साक्षात् विभूति निद्रा है, जो समस्त स्थावर जंगमादि सृष्टि से लेकर ब्रह्मादि त्रिमूर्ति तक को अपने वश में करती है |

दूसरे चरित्र में सतोगुण का पुंजीभूत दिव्य तेज ही तमोगुण के विनाश का साधन बनता है | महिषासुर वध के लिये विष्णु एवं शिव समुद्यत हुए | उनके मुखमण्डल से महान तेज निकलने लगा : “ततोऽपिकोपपूर्णस्य चक्रिणो वद्नात्तः, निश्चक्राम महत्तेजो ब्रह्मणः शंकरस्य च |” और वह तेज था कैसा “अतीव तेजसः कूटम् ज्वलन्तमिव पर्वतम् |” तत्पश्चात् अरूपिणी और मन बुद्धि से अगोचर साक्षात् ब्रह्मरूपा जगत् के कल्याण के लिये आविर्भूत हुईं | यह है शक्ति का अधिदैव स्वरूप | यों पाप और पुण्य की मीमांसा कोई सरल कार्य नहीं है | जैव दृष्टि से चाहे जो कार्य पाप समझा जाए, किन्तु मंगलमयी जगदम्बा की इच्छा से जो कार्य होता है वह जीव के कल्याणार्थ ही होता है | इसका प्रत्यक्ष प्रमाण देवासुर संग्राम है | युद्ध प्रकृति की स्वाभाविक क्रिया है | यह देवासुर संग्राम प्राकृतिक श्रृंखला के लिये इस चरित्र का आधिभौतिक स्वरूप है | सर्वशक्तिमयी के द्वारा क्षणमात्र में उनके भ्रूभंग मात्र से असुरों का नाश सम्भव था | लेकिन असुर भी यदि शक्ति उपासना करें तो उसका फल तो उन्हें मिलेगा ही | अतः महिषासुर को भी उसके तप के प्रभाव के कारण स्वर्ग लोक में पहुँचाना आवश्यक था | इसीलिये उसको साधारण मृत्यु – दृष्टिपात मात्र से भस्म करना – न देकर रण में मृत्यु दी जिससे कि वह शस्त्र से पवित्र होकर उच्च लोक को प्राप्त हो | शत्रु के विषय में भी ऐसी बुद्धि सर्वशक्तिमयी की ही हो सकती है | युद्ध के मैदान में भी उसके चित्त में दया और निष्ठुरता दोनों साथ साथ विद्यमान हैं | इस दूसरे चरित्र में महासरस्वती, महाकाली और महालक्ष्मी की रजःप्रधान महिमा का वर्णन है | इस चरित्र में महाशक्ति के रजोगुणमय विलास का वर्णन है | महिषासुर का वध ब्रह्मशक्ति के रजोगुणमय ऐश्वर्य से किया | इसीलिये इस चरित्र की देवता रजोगुणयुक्त महालक्ष्मी हैं | इस चरित्र में तमोगुण को परास्त करने के लिये शुद्ध सत्व में रज का सम्बन्ध स्थापित किया गया है | पशुओं में महिष तमोगुण की प्रतिकृति है | तमोबहुल रज ऐसा भयंकर होता है कि उसे परास्त करने के लिये ब्रह्मशक्ति को रजोमयी ऐश्वर्य की सहायता लेनी पड़ी | तमोगुण रूपी महिषासुर को रजोगुण रूपी सिंह ने भगवती का वाहन बनकर (उसी सिंह पर शुद्ध सत्वमयी चिन्मयरूपधारिणी ब्रह्मशक्ति विराजमान थीं) अपने अधीन कर लिया |

तृतीय चरित्र में रौद्री शक्ति का आविर्भाव कौशिकी और कालिका के रूप में हुआ | वस्तुतः सत् चित् और आनन्द इन तीनों में सत् से अस्ति, चित् से भाति, और आनन्द से

Mahishasurmardini
Mahishasurmardini

प्रिय वैभव के द्वारा ही विश्व प्रपंच का विकास होता है | इस चरित्र में भगवती का लीलाक्षेत्र हिमालय और गंगातट है | सद्भाव ही हिमालय है और चित् स्वरूप का ज्ञान गंगाप्रवाह है | कौशिकी और कालिका पराविद्या और पराशक्ति हैं | शुम्भ निशुम्भ राग और द्वेष हैं | राग और द्वेष जनित अविद्या का विलय केवल पराशक्ति की पराविद्या के प्रभाव से ही होता है | इसीलिये शुम्भ और निशुम्भ रूपी राग और द्वेष महादेवी में विलय हो जाते हैं | राग द्वेष और धर्मनिवेशजनित वासना जल एवम् अस्वाभाविक संस्कारों का नाश हो जाने पर भी अविद्या और अस्मिता तो रह ही जाती है | यह अविद्या और अस्मिता शुम्भ और निशुम्भ का आध्यात्मस्वरूप है | देवी के इस तीसरे चरित्र का मुख्य उद्देश्य अस्मिता का नाश ही है | अस्मिता का बल इतना अधिक होता है कि जब ज्ञानी व्यक्ति आत्मज्ञान प्राप्त करने लगता है तो सबसे पहले उसे यही भान होता है कि मैं ही ब्रह्म हूँ | उस समय विद्या के प्रभाव से “मैं” इस अस्मिता के लोकातीत भाव तक को नष्ट करना पड़ता है | तभी स्वस्वरूप का उदय हो पाता है | निशुम्भ के भीतर से दूसरे पुरुष का निकलना और देवी का उसे रोकना इसी भाव का प्रकाशक है | निशुम्भ के साथ उस पुरुष तक को मार डालने से अस्मिता का नाश होता है | और तभी देवी के निशुम्भ वध की क्रिया सुसिद्ध होती है | यही शुम्भ निशुम्भ वध का गूढ़ रहस्य है | वास्तव में यह युद्ध विद्या और अविद्या का युद्ध है | इस तीसरे चरित्र में क्योंकि देवी की सत्वप्रधान लीला का वर्णन है | इसलिए इस चरित्र की देवता सत्वगुणयुक्त महासरस्वती हैं | इस चरित्र के सत्वप्रधान होने के कारण ही इसमें भगवती की निर्लिप्तता के साथ साथ क्रियाशीलता भी अलौकिक रूप में प्रकट होती है |

सूक्ष्म जगत् और स्थूल जगत् दोनों ही में ब्रह्मरूपिणी ब्रह्मशक्ति जगत् और भक्त के कल्याणार्थ अपने नैमित्तिक रूप में आविर्भूत होती है | राजा सुरथ और समाधि वैश्य के हेतु भक्त कल्याणार्थ आविर्भाव हुआ | तीनों चरित्रों में वर्णित आविर्भाव स्थूल और सूक्ष्म जगत् के निमित्त से हुआ | वह भगवती ज्ञानी भक्तों के लिये ब्रह्मस्वरूपा, उपासकों के लिये ईश्वरीरूपा, और निष्काम यज्ञनिष्ठ भक्तों के लिये विराट्स्वरूपा है :

त्वं सच्चिदानन्दमये स्वकीये ब्रह्मस्वरूपे निजविज्ञभक्तान् |

तथेशरूपे विधाप्य मातरुपासकान् दर्शनामात्म्भक्तान् ||

निष्कामयज्ञावलिनिष्ठसाधकान् विराट्स्वरूपे च विधाप्य दर्शनम् |

श्रुतेर्महावाक्यमिदं मनोहरं करोष्यहो तत्वमसीति सार्थकम् ||

जैसा कि पहले ही बताया गया है कि शक्ति और शक्तिमान में अभेद होता है | सृष्टि में शक्तिमान से शक्ति का ही आदर और विशेषता होती है | किसी किसी उपासना प्रणाली में शक्तिमान को प्रधान रखकर उसकी शक्ति के अवलम्बन में उपासना की जाती है | जैसे वेद और शास्त्रोक्त निर्गुण और सगुण उपासना | इस उपासना पद्धति में आत्मज्ञान बना रहता है | कहीं कहीं शक्ति को प्रधान मानकर शक्तिमान का अनुमान करते हुए उपासना प्रणाली बनाई गई है | यह अपेक्षाकृत आत्मज्ञानरहित उपासना प्रणाली है | इसमें आत्मज्ञान का विकास न रहने के कारण साधक केवल भगवान् की मनोमुग्धकारी शक्तियों के अवलम्बन से मन बुद्धि से अगोचर परमात्मा के सान्निध्य का प्रयत्न करता है | लेकिन भगवान् की मातृ भाव से उपासना करने की अनन्त वैचित्र्यपूर्ण शक्ति उपासना की जो प्रणाली है वह इन दोनों ही प्रणालियों से विलक्षण है | इसमें शक्ति और शक्तिमान का अभेद लक्ष्य सदा रखा गया है | एक और जहाँ शक्तिरूप में उपास्य और उपासक का सम्बन्ध स्थापित किया जाता है, वहीं दूसरी ओर शक्तिमान से शक्तिभाव को प्राप्त हुए भक्त को ब्रह्ममय करके मुक्त करने का प्रयास होता है | यही शक्ति उपासना की इस तीसरी शैली का मधुर और गम्भीर रहस्य है |

विशेषतः भक्ति और उपासना की महाशक्ति का आश्रय लेने से किसी को भी निराश होने की सम्भावना नहीं रहती | युद्ध तो प्रकृति का नियम है | लेकिन यह देवासुर संग्राम मात्र देवताओं का या आत्मोन्मुखी और इन्द्रियोन्मुखी वृत्तियों का युद्ध ही नहीं था, वरन् यह देवताओं का उपासना यज्ञ भी था | और जगत् कल्याण की बुद्धि से यही महायज्ञ भी था | और इस सबके मर्म में एक महान सन्देश था | वह यह कि यदि दैवी शक्ति और आसुरी शक्ति दोनों अपनी अपनी जगह कार्य करें, दोनों का सामंजस्य रहे, एक दूसरे का अधिकार न छीनने पाए, तभी चौदह भुवनों में धर्म की स्थापना हो सकती है | और बल, ऐश्वर्य, बुद्धि और विद्या आदि प्रकाशित रहकर सुख और शान्ति विराजमान रह सकती है | भारतीय मनीषियों ने शक्ति में माता और जाया तथा दुहिता का समुज्ज्वल रूप स्थापित कर व्यक्ति और समाज को सन्मार्ग की ओर प्रेरित किया है | शक्ति, सौन्दर्य और शील का पुंजीभूत विग्रह उस जगज्जननी दुर्गा को भारतीय जनमानस का कोटिशः नमन…         

___________________कात्यायनी