पाँच फरवरी को वसन्त पञ्चमी का उल्लासमय पर्व था… ऋतुराज वसन्त के स्वागत हेतु WOW India ने साहित्य मुग्धा दर्पण के साथ मिलकर डिज़िटल प्लेटफ़ॉर्म ज़ूम पर दो दिन काव्य संगोष्ठियों का आयोजन किया… द्वितीय कड़ी 5 फरवरी को आयोजित की गई जिसमें दोनों संस्थाओं के सदस्यों स्वरचित रचनाओं का पाठ किया… काव्य पाठ प्रस्तुत वाले वाले सदस्यों को सम्मानस्वरूप एक प्रशस्ति पत्र भी प्रदान किया गया है… सादर: डॉ पूर्णिमा शर्मा…
नमस्कार ! WOW India के सदस्यों की योजना थी कि कुछ कवि और कवयित्रियों की वासन्तिक रचनाओं से वेबसाइट में वसन्त के रंग भरेंगे, लेकिन स्वर साम्राज्ञी भारत
Lata Mangeshkar
कोकिला लता मंगेशकर जी के दिव्य लोक चले जाने के कारण दो दिन ऐसा कुछ करने का मन ही नहीं हुआ… जब सारे स्वर शान्त हो गए हों तो किसका मन होगा वसन्त मनाने का… लेकिन दूसरी ओर वसन्त भी आकर्षित कर रहा था… तब विचार किया कि लता दीदी जैसे महान कलाकार तो कभी मृत्यु को प्राप्त हो ही नहीं सकते… वे तो अपनी कला के माध्यम से जनमानस में सदैव जीवित रहते हैं…
नाम गुम जाएगा, चेहरा ये बदल जाएगा
मेरी आवाज़ ही पहचान है, गर याद रहे
और यही सब सोचकर आज इस कार्य को सम्पन्न कर रहे हैं… लता दीदी वास्तव में माता सरस्वती की पुत्री थीं… तभी तो उनका स्वर कभी माँ वाणी की वीणा जैसा प्रतीत होता है… कभी कान्हा की बंसी जैसा… तो कभी वासन्तिक मलय पवन संग झूलते वृक्षों के पत्रों के घर्षण से उत्पन्न शहनाई के नाद सरीखा… तभी तो नौशाद साहब ने अपने एक इन्टरव्यू में कहा भी था “लता मंगेशकर की आवाज़ बाँसुरी और शहनाई की आवाज़ से इस क़दर मिलती है कि पहचानना मुश्किल हो जाता है कौन आवाज़ कण्ठ से आ रही है और कौन साज़ से…” उन्हीं वाग्देवी की वरद पुत्री सुमधुर कण्ठ की स्वामिनी लता दीदी को समर्पित है इस पृष्ठ की प्रथम रचना… माँ वर दे… सरस्वती वर दे…
माँ वर दे वर दे / सरस्वती वर दे…
वीणा पर वह भैरव गा दे, जो सोए उर स्वतः जगा दे |
सप्त स्वरों के सप्त सिन्धु में सुधा सरस भर दे ||
माँ वर दे वर दे / सरस्वती वर दे…
गूँज उठें गायन से दिशि दिशि, नाच उठें नभ के तारा शशि |
Vasant Panchami
पग पग में नूतन नर्तन की चंचल गति भर दे ||
माँ वर दे वर दे / सरस्वती वर दे…
तार तार उर के हों झंकृत, प्राण प्राण प्रति हों स्पन्दित |
नव विभाव अनुभाव संचरित नव नव रस कर दे ||
माँ वर दे वर दे / सरस्वती वर दे…
वीणा पुस्तक रंजित हस्ते, भगवति भारति देवि नमस्ते |
मुद मंगल की जननि मातु हे, मुद मंगल कर दे ||
माँ वर दे वर दे / सरस्वती वर दे…
अब, वसन्त का मौसम चल रहा है… जो फाल्गुन मास से आरम्भ होकर चैत्र मास तक रहता है… फाल्गुन मास हिन्दू वर्ष का अन्तिम महीना और चैत्र मास हिन्दू नव वर्ष का प्रथम माह होता है… भारतीय वैदिक जीवन दर्शन की मान्यता कितनी उदार है कि वैदिक वर्ष का समापन भी वसन्तोत्सव तथा होली के हर्षोल्लास के साथ होता है और आरम्भ भी माँ भगवती की उपासना के उल्लास और भक्तिमय पर्व नवरात्रों के साथ होता है… तो प्रस्तुत हैं हमारे कुछ साथियों द्वारा प्रेषित वासन्तिक रचनाएँ… सर्वप्रथम प्रस्तुत है डॉ ऋतु वर्मा द्वारा रचित ये रचना… प्रेम वल्लरी
हवाओं को करने दो पैरवी,
हौले हौले फूलों को रंग भरने दो
बस चुपचाप रहो तुम,
प्रेम वल्लरी अंबर तक चढ़ने दो
किरनों आओ, आकर धो दो हृदय आंगन
अब यहां आकर रहा करेंगे, सूर्य आनन
धड़कनों को घंटनाद करने दो,
विवादों को शंखनाद करने दो
प्रेम वल्लरी…..
सौंदर्यमयी आएगी पहनकर / नीहार का दुशाला
तुम भी दबे पांव आना / अति सजग है उजाला
प्रेम प्रालेय को देह पर गिरने दो,
चश्म के चश्मों को नेह से भरने दो
प्रेम वल्लरी….
ये हृदयहीन जाड़ा, क्यूं गलाये स्वप्न?
तेरा अलाव सा आगोश, पिघलाये स्वप्न
कहीं दूर शिखरों पर बर्फ गिरती है, तो गिरने दो
जलती है दुनिया पराली सी, तो जलने दो
प्रेम वल्लरी…..
और अब, रेखा अस्थाना जी की रचना… सखी क्या यही है वसन्त की भोर?…
सखि क्या यही है वसन्त की भोर ?
खोल कपाट अलसाई नैनों से / देखा मैंने जब क्षितिज की ओर |
सुगंध मकरंद की भर गई / चला न पाई संयम का जोर ||
सखी कहीं यही तो नहीं वसन्त की भोर? |
फिर चक्षु मले निज मैंने / लगी तकन जब विटपों की ओर |
देख ललमुनियों का कौतुक / प्रेमपाश में मैं बंध गई
भीग उठे मेरे नयन कोर |
सखी यही तो नहीं वसन्त की भोर ||
फिर पलट कर देखा जब मैंने / बौराए अमुआ गाछ की ओर,
पिक को गुहारते वेदना में / निज साथी को बुलाते अपनी ओर |
देख उनकी वेदना, पीड़ा उठी मेरे पोर पोर |
सखी क्या यही है वसन्त की भोर ||
सुनकर भंवरे की गुंजार / पुष्प पर मंडराते करते शोर
अंतर भी मेरा मचल उठा |
सुन पाऊँ शायद मैं इस बार सखी
अपने प्रियतम के बोल |
लग रहा मुझको तो सखी यही है
अब वसन्त की भोर ||
मृदुल, सुगंधित, सुरभित बयार ने
आकर जब छुआ मेरे कोपलों को,
तन ऊर्जा से भर गया मेरा |
खुशी का रहा नहीं मेरा ओर-छोर |
अलि अब तो समझ ही गयी मैं,
यही तो है वसन्त की भोर ||
अब डॉ नीलम वर्मा जी का हाइकु…
बसंत-हाइकु
उन्मुक्त धरा
गा दिवसावसान
बसंत- गान
– नीलम वर्मा
अब पढ़ते हैं गुँजन खण्डेलवाल की रचना… पधार गए रति नरेश मदन…
सुप्त तितलियों ने त्याग निद्रा सतरंगी पंख दिए पसार,
सरसों ने फैलाया उन्मुक्त पीला आंचल, दी लज्जा बिसार
रंग बिरंगे पुष्पों से शोभित हुए उपवन – अवनि,
बालियों से अवगुंठित पहन हार, ऋतुराज ढूंढे सजनी,
झटक कर अपने पुराने वसन,
नूतन पत्र पंखों से वृक्ष करते अगुवाई,
आंख मिचौली खेलती धूप, स्निग्ध ऊष्म से देती बधाई,
लहलहाने लगे खेत, उपवन करते अभिनंदन,
ईख उचक उचक लहराते, झुक झुक करते वंदन,
आम्रमंजरी, नव नीम पल्लव, पीपल कर रहे नमन,
चिड़ियों की चहक बजाएं ढोल शहनाई,
प्रफुल्ल पक्षियों ने जल तरंग बजाई,
लचकती टहनियां झूमें, छेड़े जो मलय पवन,
आनंद, प्रेम रस में हिलोरे लेते धरती गगन,
कामदेव प्रिया पीत अमलतास बिछाए,
शीश पर धर मयूर पंख किरीट रतिप्रिय मुस्काए,
कुमकुमी उल्लास, गुनगुनाते प्रेम राग पधार रहे ऋतुराज मदन,
पधार गए रति नरेश मदन।।
और अब प्रस्तुत है अनुभा पाण्डे जी की रचना… लो दबे पाँव आ गया वसन्त है…
धरती की हरिता पर यौवन अनंत है,
दिनकर की छाँव में प्रस्फुटित मकरंद है, पल्लवित कोंपलों में मंद हलचल बंद है,
लो दबे पाँव आ गया बसंत है |
शुष्क पत्र के छोड़ गलीचे,
झुरमुट हटा निस्तेज डाल की,
उल्लास की पायल झनकाती,
नव-जीवन मदिरा छलकाती,
धनी चूनर पहने धरती सराबोर रसरंग है…
लो दबे पाँव आ गया बसंत है |
झूम रहीं डाली, कलियाँ,
पत्ते सर-सर कर डाल रहे,
खेतों में नाचे गेहूँ, सरसों,
नभचर उन्मुक्त हुए, गगन मानो तोल रहे,
धरती, बयार दोनों थिरक रहे संग हैं…
लो दबे पाँव आ गया बसंत है |
फिर से कोयल कूकेगी,
फिर से अमरायी फूटेगी,
ओट से जीवन झांकेगा,
शैथिल्य की तंद्रा टूटेगी,
सुप्त तम का क्षीण-क्षीण हो रहा अंत है…
लो दबे पाँव आ गया बसंत है |
नयनाभिराम, अनुपम ये दृश्य,
रति- मदन मगन कर रहे हों नृत्य,
देव वृष्टि कर रहे ज्यों पुष्य,
मधु-पर्व की रागिनी पर सृष्टि की लय- तरंग,
शीत के कपोल पर कल्लोल कर रहा बसंत है,
लो दबे पाँव आ गया बसंत है |
माँ झंकृत कर दो मन के तार,
अलंकृत हों उद्गार, विचार,
हे वीना- वादिनी! दे विद्या उपहार,
धनेश्वरी, वाक्येश्वरी माँ! प्रार्थना करबद्ध है…
लो दबे पाँव आ गया बसंत है |
लो दबे पाँव आ गया बसंत है ||
अब प्रस्तुत कर रहे हैं रूबी शोम द्वारा रचित ये अवधी गीत… आए गवा देखो वसन्त…
आय गवा देखो बसंत, पिया नहीं आए रे
देखो सखी मोर जिया, हाय घबराए रे -3
फूल गेंदवा से चोटी, मैंने सजाई रे,
देख देख दरपन मा खुद ही लजाई रे |
अंजन से आंख अपन आंज लिंहिं आज रे
पर मोर गुइयां देखो साजन अबहुं नहीं आए रे |
आय गवा देखो बसंत सखी पिया नहीं आए रे |
पियर पियर सारी और लाल च चटक ओढ़नी
पहिन मै द्वारे के ओट बार बार जाऊं रे |
आय गवा देखो बसंत पिया नहीं आए रे -3
पियर पियर बेर शिव जी को चढ़ाऊं रे
पूजा के बहाने अब तो पिया का पंथ निहारूं रे
आय गवा देखो बसंत पिया नहीं आए रे |
पांती लिख लिख भेज रही मै हृदय की ज्वाला जल रही
आ जाओ पिया फाग में रूबी तुमरी मचले रे |
आय गवा देखो बसंत पिया नहीं आए रे
देखो सखी मोर जिया हाय घबराए रे |
ये है नीरज सक्सेना की रचना… बसंत…
सखी आया वसंत सखी छाया वसंत
धरती से पतझड़ की सायें का अंत
बेलों में फूलों की खुशबू अनंत
सखी आया वसंत सखी छाया वसंत
रचा सरसों के खेतों में बासंती रंग
इठलाई अमुआ की डाली बौरों के संग
कोयलियां कि कुह कुह जगावें उमंग
सखी आया वसंत सखी छाया वसंत
बहे मंद मंद पवन लेके भीनी सुगंध
घटी सर्दी की चादर कुहासें का अंत
दिनकर की आभा से चमचम दिगंत
सखी आया वसंत सखी छाया वसंत
गूंजे भौरें की गुंजन मधुप चखें मरकंद
देख मौसम के रंग जुड़े प्रेम के प्रसंग
जगे आशा की किरणें जगे भाव जीवंत
सखी आया वसंत सखी छाया वसंत
बसंत पंचमी की हार्दिक शुभकामनाएं!
ये रचना श्री प्राणेन्द्र नाथ मिश्रा जी की है… आनन्द हो जीवन में…
नीरसता थी, नीरव था विश्व
हर ओर मौन छाया तब तक
मां सरस्वती की वीणा से
गूंजी झंकार नहीं जब तक |
अभिलाषा! ले आ राधातत्व
जीवन हो जाए कृष्ण भक्त,
शारदे की वीणा झंकृत हो
आलोक ज्ञान रस धरा सिक्त |
हो, कुसुम कली का कलरव हो
मन मारे हिलोरें दिशा दिशा
ढूंढती फिरे अमावस को
उत्सुक हो कर ज्योत्सना निशा |
झूमे पलाश, करे मंत्र पा
आहुति दे पवन, लिपट करके
नृत्यांगना बन कर वन देवी
नाचे पीपल से सिमट कर के |
यह पर्व है या यह उत्सव है
पावन मादकता है मन में
छूती वसंत की गलबहियां
कहतीं, आनंद हो जीवन में!
अब पढ़ते हैं नीरज सक्सेना जी की रचना… आया वसन्त…
सखी आया वसंत सखी छाया वसंत
धरती से पतझड़ की सायें का अंत
बेलों में फूलों की खुशबू अनंत
सखी आया वसंत सखी छाया वसंत
रचा सरसों के खेतों में बासंती रंग
इठलाई अमुआ की डाली बौरों के संग
कोयलियां कि कुह कुह जगावें उमंग
सखी आया वसंत सखी छाया वसंत
बहे मंद मंद पवन लेके भीनी सुगंध
घटी सर्दी की चादर कुहासें का अंत
दिनकर की आभा से चमचम दिगंत
सखी आया वसंत सखी छाया वसंत
गूंजे भौरें की गुंजन मधुप चखें मरकंद
देख मौसम के रंग जुड़े प्रेम के प्रसंग
जगे आशा की किरणें जगे भाव जीवंत
सखी आया वसंत सखी छाया वसंत
और अन्त में, डॉ रश्मि चौबे की रचना… देखो सखी, आया बसंत…
यहाँ मौन निमंत्रण देता, देखो ,सखी आया बसंत !
धरती का यौवन देख सखी, फिर मुस्काया बसंत |
यहाँ मौन निमंत्रण देता, देखो, सखी आया बसंत |
वीणा वादिनी की धुन पर, कोकिला पंचम स्वर में गाती,
गुलाब सा चेहरा खिलाए, कोपलों से मेहंदी रचाती,
सरसों की ओढ़ चुनरिया, मलयगिरि संग चली है,
आम्र की डाल बौराई है, जैसे कंगना पहन चली है,
और स्वर्णिम रश्मियों से, नरमाई, कुछ शरमाई सी,
धरती का यौवन देख सखी, फिर मुस्काया बसंत |
हरियाली का लहंगा देखो, कितने रंगों से सजाया है,
पीली-पीली चोली देखो, गेंदों ने हार पहनाया है,
पाँव में छोटे फूल बिछे, जैसे कालीन बिछाया है,
देखो सब मदहोश हुए हैं, मदन ने तीर चलाया है,
आज वसुधा ने दुल्हन बन, बसंत से ब्याह रचाया है,
यहां मौन निमंत्रण देता, देखो फिर मुस्काया बसंत |
चलो सखी हम नृत्य करें, आओ यह त्योहार मनाते हैं,
मन सप्त स्वरों में गाता है, पग ठुमक- ठुमक अब जाता है,
राधा -श्याम की मुरली में, मेरा हृदय रम जाता है |
गुप्त नवरात्रों में माँ दुर्गे ने, योगियों के सहस्रार खिलाए है,
आ चल विवाह के मंडप में सखी, आत्मा को परमात्मा से मिलाएं |
अभी कल ही की तो बात है जब WOW India और साहित्य मुग्धा दर्पण द्वारा आयोजित वसन्तोत्सव में WOW India की अध्यक्ष डॉ लक्ष्मी ने लता जी का फिल्म “स्वप्न सुन्दरी” के लिया गाया कोयल के जैसा मधुर गीत “कुहू कुहू बोले कोयलिया” गाकर सुनाया था और हम सबने उनके शीघ्र स्वास्थ्य लाभ के लिए ईश्वर से प्रार्थना की थी… लेकिन ऐसा सम्भव न हो सका और लगभग एक महीने का जीवन और मृत्यु के बीच संघर्ष – और अन्त में विजय मृत्यु की हुई – जीवन हार गया – आज सुबह ही समाचार मिला कि लगभग एक महीने तक स्वास्थ्य लाभ के लिए संघर्ष कर रही स्वर कोकिला भारत रत्न लता मंगेशकर जी परम धाम को प्रस्थान कर गई हैं… वास्तव में सभी की आँखें नम हैं इस समाचार से… ऐसा लगता है जैसे भारत की आवाज़ ही कहीं गुम हो गई है… आजीवन स्वर की साधना में लीन रही लता मंगेशकर जी का निधन वास्तव में देश की कला और संस्कृति के लिए एक अपूरणीय क्षति है… किन्तु ये भी सत्य है कि ऐसी महान आत्माएँ कभी मरती नहीं… लता जी अपने स्वरों के माध्यम से सदा जीवित रहेंगी… नाम गुम जाएगा, चेहरा ये बदल जाएगा, मेरी आवाज़ ही पहचान है… ऐसे ही कला के साधकों के लिए लिखा गया है… वास्तव में समझ नहीं आ रहा कि माँ सरस्वती के प्रादुर्भाव के दूसरे दिन ही वाग्देवी की वरद पुत्री लता मंगेशकर जी के पार्थिव का पञ्चतत्व में विलीन हो जाना मात्र एक संयोग कहें या क्या कहें…? अश्रुपूरित नेत्रों से विदा देते हुए हमारे कुछ साथियों ने श्रद्धा सुमन समर्पित किये हैं दिवंगत आत्मा के प्रति…
सरस्वती विसर्जन वाले दिन ही आज की सरस्वती का निधन एक संयोग मात्र है या कोई ईश्वरीय तय घटना..🙏… सरिता रस्तोगी
Veteran Lata ji passed away on such an auspicious day of maà Saraswati s visarjan… RIP🙏🏻🙏🏻How symbolic… she was maà Saraswati ji herself…. सुनन्दा श्रीवास्तव
थम गई गीत की सुर सरिता
लय टूट गई, गति हुई मन्द
छन्दों का मान करें अब क्या
हो गया बन्द हर पद्यबन्ध
माँ वाणी की वीणा निस्तब्ध
सूनी है गोद भारती की
कोकिला सदा के लिए सुप्त
कैसी आई ये ऋतु वसन्त
पर सदा प्रवाहित वह धारा
निःसृत जो कण्ठ से थी उसके
और सदा करेगा मान जगत
उस सरगम को जो हुई रुद्ध
माँ वाणी की मानस पुत्री कोकिलकण्ठी स्वर साम्राज्ञी भारत रत्न लता मंगेशकर जी को अश्रुपूर्ण भावभीनी श्रद्धांजलि…. डॉ पूर्णिमा शर्मा
माँ सरस्वती का पूजन कल, आज लता जी कर गई विकल।
स्वर कोकिला भी गईं निकल, श्रद्धा में नत हो खड़े सकल।
आँख में नीर भी भर लेना, वतन के लोगों ठहर लेना।
सुर साम्राज्ञी थी भर लेना, याद को उनकी लहर देना।
भारत रत्न वही पुरस्कार, शोभा उनसे मिलती अपार।
वो भी उनको रहता निहार, स्वर, गीत, ताल का कर विचार।
श्रद्धा से अर्पण करे फूल, सुर सागर की बनी मस्तूल।
संगीत के वन की शार्दूल, वो अमर गीत दे बनीं धूल।
करबद्ध हुए, दिल आहत है, शान्त ईश्वर करे, चाहत है।
दुख है पर नहीं मसाहत है, वो गीत बचे ये राहत है।
आँखों से बहा हर काजल है, सुर पर अब छाया बादल है।
शेखर दुख ये दावानल है, ये अश्रुपूर्ण श्रद्धा जल है।
डॉ हिमांशु शेखर, पुणे
लता ताई संगीत की पहचान थी
वह तो वाणी वीणा की प्राण थी
पीढ़ी दर पीढ़ी का मधुर गान थी
हर ह्रदय बसी स्वर लहरी तान थी
उनकी आवाज देश की पहचान थी
भोर की पहली किरण जिस स्वर से हमे जागती थी
दोपहर की धूप जिनकी तान से शीतलता बांट जाती थी
जिसके सतरंगी गीतों से सज के सांझ उतर आती थी
जिनकी मीठी लोरियों से अखियों में नींद पसर जाती थी
थकी देह जिनके गीतों को सुनके सुकून से सुस्ताती थी
थम गई मधुर आवाज जो हर मन उमंग जगाती थी
सर्द रातों में जिनके गीतों से गरमाहट सी आ जाती थी
रिमझिम बारिश को जो आवाज ख़ुशगवार बना जाती थी
वो प्यार का तराना वो माँ की लोरी के गीतों की थाती थी
वो देश को समर्पित वो भाई बहन के रिश्तों को जगाती थी
अर्चना आरती वो संदेशो के गीतों से मन मे उतर जाती थी
जिनकी स्वर लहरी बुझते रिश्तों मे भी उम्र बढ़ाती थी
जिनके गीत उम्र के आखरी पड़ाव को जवां बना जाती थी
थम गई वह आवाज जो हर उम्र उमंग जगाती थी
नीरज सक्सेना, ग़ाज़ियाबाद
शारदा विसर्जन का दिन है
संग चली गईं, सुर साम्राज्ञी,
चिन्मयी कोकिला कंठ दिव्य
मृणमयी माते की अनुरागी।
तुम कितना भी दूर रहो,
दीदी! न तुम्हें हम भूलेंगे
जब भी गूंजेंगे तुम्हारे स्वर
हम नमन तुम्हें कर छू लेंगे।
🙏भावभीनी श्रद्धांजलि🙏
पी एन मिश्रा, कोलकाता
अपूर्णीय क्षति, हमारे देश की कोकिला कंठी का जाना हृदय शोक से भर गया। अत्यंत दुखद ,उनकी कमी कोई नहीं पूरी कर पाएगा , परन्तु उनकी आवाज अजर,अमर रहेगी। ईश्वर उनकी आत्मा को श्री चरणों में स्थान दें।🙏
सूती लुंगी व साधारण सी कमीज़ पहने, गले में गमछा डाले हजब्बा जब अपनी चप्पल उतारकर राष्ट्रपति कोविंद जी से अवॉर्ड लेने पहुंचे तो दर्शकों को कौतूहल और विस्मय हुआ | “सामने राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और कई बड़े बड़े लोग बैठे थे, मैं भला उनके सामने चप्पल कैसे पहन सकता हूं”, ऐसा विनम्रता की प्रतिमूर्ति हजब्बा का कहना था |
कर्नाटक के मंगलुरू के समीप न्यूपाडपु गांव के हजब्बा प्रतिदिन उधारी से संतरे लेकर बस डिपो पर बेचा करते थे | करीब 30 वर्ष पहले की एक छोटी सी घटना ने उनके मन पर गहरा प्रभाव डाला | एक विदेशी ने उनसे अंग्रेज़ी में संतरे का दाम पूछा, वे समझ नही पाए और चुप रह गए | अपने पढ़े लिखे नहीं होने की शर्मिंदगी को उन्होंने एक पॉजिटिव मिशन के रूप में लिया और अपने विद्यालय रहित गांव में स्कूल बनाने की ठान ली ताकि वे वहां के निर्धन बच्चों को शिक्षित कर सकें | अपनी स्वयं की बहुत मामूली बचत और अन्यों से सहयोग लेकर उन्होंने ये स्वप्न साकार किया | एक मस्जिद में छोटे बच्चो का पहला स्कूल बना जो आज बढ़ते बढ़ते बड़ा विद्यालय बन गया है |
Selling Oranges on the Street Harekala Hajabba
हजब्बा के इस बिग ड्रीम को साकार करने में लोगों का बहुत सहयोग रहा | कृतज्ञता स्वरूप उनकी नाम पट्टिका स्कूल में लगवाई गई है | उन्हें अपने इस मिशन से संबंधित प्रत्येक घटना व व्यक्ति आज भी याद है | उनका एक कक्ष देश विदेश से प्राप्त अवार्डों से सज्जित है पर प्राप्त धनराशि वे स्कूल की ही मानते हैं |
शिक्षा का धर्म अन्य धर्मों से बड़ा है, संभवतः इसी लिए हर जाति के लोगों से उन्हें मदद मिली |
अल्जाइमर से ग्रस्त बीमार पत्नी, दो विवाह योग्य बेटियों और ‘पेड लेबरर’ बेटे के पिता हजब्बा प्रति दिन ये सब भूल कर स्वयं स्कूल के कक्ष खोलते हैं और भीतर जाने के पूर्व चप्पल उतरना नहीं भूलते और फिर निकल जाते हैं आज भी संतरे बेचने के काम पर, आंखों में अपने विद्यालय को कॉलेज बनता देखने का स्वप्न लिए जो कल साकार होगा |
स्वयं अशिक्षित होने पर भी, अन्यों को शिक्षित करने का हज्जबा का जज़्बा और विश्वास समाज सेवा के रूप में मिसाल बन गया है | इसी निश्चय और प्रयत्नों ने लोगों को उन्हें मदद देने को प्रेरित किया है |
“मैं तो अकेले ही चला था जानिब – ए मंज़िल मगर लोग साथ आते गए और कारवां बनता गया” | जय हिंद… गुँजन खण्डेलवाल
जी हाँ निंदा रस… बहुत परिश्रम से किसी किसी के पास ही होता है, पर सौभाग्य स्त्री को इसका मिलता है | पुरुष क्या जाने इसका स्वाद ? स्त्रियाँ जब इस रस की वार्ता में व्यस्त हो जाती हैं उनका हृदय आनंद से सराबोर हो जाता है | अपना ध्यान सारा का सारा बोझिल कर्तव्यों से हटाकर बस निंदा रस के आनंद में मगन हो श्वेत पंख सी हल्की हो आकाश में विचरण करने लगती हैं | अंतर की सारी बेकार की बातें निकाल फेंकती हैं | चाहे वह सास, नन्द या पड़ोसी जो भी हो जिसको स्त्रियाँ पसन्द नहीं करती बस अपनी सखी से उसकी निंदा करना शुरू देती हैं | सच मानिए, तब उनका चेहरा कमल की तरह खिल उठता है 😊
अरे जनाब आप पुरुषों में ये गुण कहाँ जो हम स्त्रियों में है |
अब बोलो हमें इसी कारण हार्ट अटैक की संभावना भी कम होती है | जब हमारे पास निंदा रस है तो हम क्यों सेवन करें बीटरूट जूस, एलोवेरा जूस 😊
हम तो बस एक दो टे टहलते हुए या जैसा भी माहौल हो जी भर के निंदा रस में मशगूल हो उसका सेवन करने और कराने में लग जाते हैं और बिल्कुल तरोताजा हो घर पर आराम से काम करते हैं | खर्राटे मार कर सोते हैं | अरे ये तो ईश्वर के द्वारा दिया हुआ गुण है हमें, तो क्यों न इसका उपयोग कर स्वस्थ रहें हम 😊
और ये सब तो नीतिपरक स्लोगन पुरुष ही अपने ऊपर लागू करें | ठीक कहा न हमने 😊
वैतूल निवासी गुँजन खण्डेलवाल जी WOW India की ऐसी सदस्य हैं जो वैतूल में रहते हुए भी संस्था से जुडी हुई हैं और संस्था के Online कार्यक्रमों में नियमित रूप से
Gunjan Khandelwal
भाग लेती रहती है… English Scholar और अंग्रेज़ी की ही प्रोफ़ेसर होने के साथ ही हिन्दी भाषा में गहरी रूचि रखती हैं और हिन्दी भाषा की बहुत अच्छी और प्रभावशाली कवयित्री होने के साथ ही एक सुलझी हुई लेखिका भी हैं… बहुत से सम सामयिक विषयों पर अपनी सुलझी हुई राय रखती हैं… कुछ ऐसे व्यक्तित्वों के विषय में इन्होंने लिखना आरम्भ किया है जो जन मानस पर गहरी छाप छोड़ जाते हैं… इससे पहले की ये कहीं इतिहास के पन्नों में गुम हो जाएँ… ताकि हम और आप इनसे कुछ प्रेरणा प्राप्त कर सकें… इनसे कुछ सीख सकें… प्रस्तुत है इनकी ये रचना… यद्यपि इस महान व्यक्तित्व के विषय में आज बहुत लोग परिचित हैं, किन्तु आज हम इसके विषय में गुँजन जी की दृष्टि से देखने का प्रयास करेंगे… डॉ पूर्णिमा शर्मा…
क्यों भई तुम्हारी कलम को भी कोरोना हो गया था क्या ? कब तक ‘क्वारनटाइन’ रहेगी ?”
बात उपहास में पूछी गई, पर लगा शायद पिछले दहशत भरे वक्त का ‘कोरोना इफेक्ट’ तन मन और सभी एक्टिविटीज को कहीं न कहीं प्रभावित तो कर ही गया है | इस बार दीपावली कुछ कुछ उत्साह भरी रही की अपनों से मिलना जुलना हुआ, पर कितने घरों की शोक की पहली दीपावली मन को व्यथित कर गई | खैर…
जीवन तो आगे बढ़ता ही है | ऐसे में सन 2021 के पद्म पुरस्कारों की सूची के कुछ नाम और परिचय बहुत प्रेरक लगे | साथ ही इन पुरस्कारों की ‘क्रेडिबिलिटी’ को बढ़ा गए | महिलाएँ जहाँ कहीं की भी हों, जो भी हासिल करती हैं वो उनके लिए सदा से धारा के विपरीत तैरने जैसा होता है | ये बहुत कंट्रोवर्शियल हो सकता है पर…
Mrs. Tulsi Gowda
जाने भी दीजिए ना ! पर इस समय जिस सम्मान और तालियों की गड़गड़ाहट के बीच जंगल की पगडंडियों से चल कर राष्ट्रपति भवन के ‘रेड कार्पेट’ तक नंगे पांव जिन्होंने ये सफ़र तय किया है वे हैं श्रीमती तुलसी गौड़ा जी | कर्नाटक में हलक्की जनजाति से संबंध रखने वाली तुलसी गौड़ा जी होनाली गांव के बेहद ही गरीब परिवार की हैं | यहां तक की वो कभी विद्यालय भी नहीं जा सकीं | प्रकृति के प्रति अधिक लगाव होने के कारण उनका अधिक समय जंगल में ही बीता और उनका पौधों और जड़ी बूटियों का ज्ञान विस्तृत होता गया | आज 77 वर्ष की आयु में वो ‘इनसाइक्लोपीडिया ऑफ फॉरेस्ट’ के रूप में विख्यात हैं | पिछले 60 वर्षों में उन्होंने तीस हजार से अधिक वृक्ष लगाए हैं | उनके प्रयासों को पहले भी इंदिरा प्रियदर्शिनी वृक्ष मित्र अवॉर्ड, राज्योत्सव अवॉर्ड और कविता मेमोरियल जैसे अवार्डो द्वारा सराहना मिल चुकी है | वे वन विभाग में कार्यरत हैं जहां वे लगातार पौधों के बीज एकत्र करती रहती हैं, गर्मी तक उनका रखरखाव करते हुए उपयुक्त समय पर जंगल में बो देती हैं |
अपने पारंपरिक सूती आदिवासी वस्त्र में राष्ट्रपति कोविद जी से पुरस्कार ग्रहण करने वाली तुलसी गौड़ा जी अपनी सादगी और पर्यावरण मित्र के रूप में नई पीढ़ी से उत्साह पूर्वक अपना ज्ञान और अनुभव बांटती है | आशा है उनके द्वारा रोपित ये बीज आगे भी अंकुरित व पल्लवित होते रहेंगे | जय हिंद |
Going Back to the History with Sunanda Shrivastava
Built in 1777, the Writer’s Building was meant to accommodate junior servants, or ‘writers’ as they were called, of the East India Company. When it was leased to the company in 1780 for this purpose, it was described as looking like a ‘shabby hospital, or poor-house ‘. After several structural changes over the next couple of decades, Fort William College set up camp there, training writers in languages such as Hindi and Persian, until around 1830. In the years that succeeded, the dwelling was used by private individuals and officials of the British Raj as living quarters and for shopping.
Writer’s Building, Kolkata
Extensive remodelling and renovations have occurred most of the times the building was switched between hands. Today, there are 13 blocks; six of which were added after India won independence from British rule. The 150-metre-long structure has a distinct Greco-Roman style, with several statues of Greek gods as well as a sculpture of Roman goddess Minerva commanding attention from the pediment.
Among the many notable events that occurred during the building’s lifetime, the most memorable one perhaps was the assassination of Lt Col NS Simpson, the infamous Inspector General of Prisons. Three Bengali revolutionaries – Benoy Basu, Badal Gupta and Dinesh Gupta – disguised themselves as Westerners to get inside the Writers’ Building and shot the colonel, who was notorious for his brutal oppression of Indian prisoners. It is from the names of these freedom fighters that BBD Bagh – the central business district of Kolkata (and the location of Writers’ Building) – gets its name.
बात तीस साल पहले की है | 1988 में बस्ती जिले के उत्तरी भाग को अलग कर उत्तर प्रदेश में सिद्धार्थ नगर जिले की स्थापना हुई थी | इसका कारण यह था कि पुरातत्व
उत्खनित बौद्ध स्तूप पिपरहवा
विभाग ने वास्तविक कपिलवस्तु की पुरातात्विक पहचान कर ली थी और कपिलवस्तु गौतम बुद्ध उर्फ सिद्धार्थ की नगरी थी | इसलिए जिले का सिद्धार्थ नगर नाम इतिहास के प्रामाणिक तथ्यों पर आधारित है |
आज सिद्धार्थ नगर जिले में जो पिपरहवा है, वही सिद्धार्थ की नगरी कपिलवस्तु है | पिपरहवा की पहली जानकारी एक ब्रिटिश इंजीनियर तथा पिपरहवा क्षेत्र के जमींदार डब्ल्यू. सी. पेपे को मिली थी और वो जमीन पेपे के पास थी |
वो जनवरी का महीना था और 1898 का साल था, जब पिपरहवा में विशाल स्तूप की खोज हुई थी | स्तूप से एक पत्थर का कलश मिला | कलश पर ब्राह्मी में अभिलेख था, जिस पर लिखा था – सलिलनिधने बुधस्भगवते अर्थात अस्थि – पात्र भगवत बुध का है | 19 जनवरी, 1898 को डब्ल्यू. सी. पेपे ने नोट बनाकर इस अभिलेख को समझने के लिए वी. ए. स्मिथ को भेजा था | पहली तस्वीर पिपरहवा के विशाल स्तूप की है और दूसरी तस्वीर में वो अभिलेखित कलश है |
दिन, महीने, साल बीते | बात 1970 के दशक की है | पुरातत्व विभाग ने पिपरहवा की क्रमबद्ध खुदाई कराई | फिर तो विशाल स्तूप के अगल – बगल चारों ओर पूरब, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण में अनेक संघाराम मिले | पूर्वी संघाराम, पश्चिमी संघाराम, उत्तरी संघाराम, दक्षिणी संघाराम इसे तस्वीरों में आप देख सकते हैं | पूरा पिपरहवा संघारामों से पटा हुआ था | यह कपिलवस्तु का धार्मिक – शैक्षणिक क्षेत्र था |
अभिलेखित धातु मंजूषा
यह कपिलवस्तु है और वास्तविक कपिलवस्तु है | इसका पुरातात्विक प्रमाण भी मिल गया | खुदाई में मिली मिट्टी की मुहरों पर लिखा है कि कपिलवस्तु का विहार यही है | आप उन मिट्टी की मुहरों को तस्वीर में देख सकते हैं | कहीं कपिलवस्तु और कहीं महा कपिलवस्तु लिखा है |
आप देख रहे हैं कि पिपरहवा का क्षेत्र विहारों, स्तूपों से भरा है तो फिर कपिलवस्तु के लोग कहाँ रहते थे? बस पिपरहवा से कोई 1 कि. मी. की दूरी पर गनवरिया है | यह कपिलवस्तु का रिहायशी क्षेत्र था | यहीं गणराज्य के लोग रहते थे | आखिरी तस्वीर उसी गनवरिया की आवासीय संरचना की है |
पिपरहवा जो कपिलवस्तु का धार्मिक क्षेत्र था, बोधिवृक्ष पीपल नाम को सार्थक करता है और गनवरिया जो कपिलवस्तु का रिहायशी क्षेत्र था, गण नाम को सार्थक करता है | यह पूरबी बोली के नाम हैं, जिसमें ” ल ” का उच्चारण ” र ” और ” ण ” का उच्चारण ” न ” होता है | इसीलिए पीपल / पीपर से पिपरहवा/ पिपरिया संबंधित है और ( शाक्य ) गण / गन से गनवरिया संबंधित है |
On this day in the year 1862, last Mughal King Bahadur Shah ‘Zafar’ died in exile in Rangoon. Ghalib, who had been his ustad, received the news much later, only through the newspapers. He wrote a simple epitaph in a letter dated 16 December 1862, to his friend Mir Mahdi ‘Majruh’:
“7 November 14 jamadi ul awwal, saal e haal, jumme ke din, Abu Zafar Sirajuddin Bahadur Shah qaid e firang o qaid e jism se riha hue”.
‘On Friday, the 7th of November, Abu Zafar Sirajuddin Bahadur Shah was freed of the bonds of the British and the bonds of the flesh’
In a bid to ensure that Bahadur Shah Zafar’s resting place would not become a site of pilgrimage for both Hindus and Muslims, that would
Bahadur Shah Zafar
potentially incite another freedom struggle in the memory of the Emperor, the British hastily buried the deceased Emperor in a secret location.
However, by chance, in the year 1991, the burial site of the last Emperor was discovered, leading to the construction of a tomb to honour the last Emperor of Hindustan.
Today, the resting site of Bahadur Shah Zafar is maintained as a Sufi dargah, with locals visiting the tomb on a daily basis as Bahadur Shah Zafar was recognised as a Sufi Pir during his reign as Emperor of Hindustan.
Post text Credit: Mughal Imperial Archives – by Sunanda Shrivastava
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